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(३१६ ) यदि इस पर भी भगवान् गौड़पाद यह निर्भीक घोषणा करते हैं सो स्वभावतः इस ग्रंथ के प्रसंग में इसका विशेष रहस्य होगा क्योंकि तीसरे और चौथे अध्याय में 'निद्रा' तथा 'स्वप्न' के लक्षण समझाये गये थे । वहाँ यह बलाया गया था कि स्वप्न तथा निद्रा वे अवस्थाएँ हैं जिनमें जीवात्मा आमोदप्रमोद में व्यस्त रहता है और 'आत्मा' सूक्ष्म-शरीर (मन तथा बुद्धि) या कारण-शरीर (अज्ञान के प्रावरण) से अपना सम्बन्ध स्थापित किये रहता है ।
अात्मानुभूति वाला व्यक्ति वह है जिसने अपने मन एवं बुद्धि पर विजय प्राप्त कर ली है और जिसे अपने वास्तविक स्वभाव के प्रति तनिकमात्र अज्ञान नहीं रहता अर्थात् जो सूक्ष्म एवं कारण शरीरों को लाँघ लेता है । इस ज्ञान के उदय होने पर हमें अपने वास्तविक स्वरूप के सम्बन्ध में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह सकता; जहाँ ज्योति है वहाँ अन्धकार किस प्रकार रह सकता है ? वास्तविक-तत्व का ज्ञान न रहने से स्वप्न तथा निद्रा की अवस्था के विषय में भ्रान्ति बनी रहती है। यहाँ श्री गौड़पाद ने जामसावस्था का विशेष उल्लेख नहीं किया है क्योंकि इस (जाग्रत) अवस्था में भी मन एवं बुद्धि द्वारा हम अनुभव प्राप्त करते रहते हैं।
ऋषि ने जिस 'सत्य' की घोषणा की है उसे समझने का प्रयत्न करने वाले साधक श्री गौड़पाद के इन शब्दों का गूढ़ रहस्य भली भान्ति जान चुके होंगे क्योंकि अभ्यास द्वारा इसे समझ लेना कठिन बात नहीं है । अध्ययन तथा साधना में अभ्यस्त रहने वाले मनुष्यों को इस सम्बन्ध में रत्ती भर शंका नहीं हो सकती । 'प्रभातं भवति स्वयम्'–जब शरीर, मन और बुद्धि का अतिक्रमण कर लिया जाय तब अव्यावहारिक विद्यार्थी निस्सन्देह यह प्रश्न करेंगे कि शास्त्रों के कथनानुसार यदि आत्मानुभव की स्थिति में ज्ञान का कोई भी ज्ञात उपस्कर उपलब्ध नहीं होता तब साधक को इस अवस्था की अनुभूति किस प्रकार होगी ? मन के न होने पर वह 'सत्य' को न तो अनुभव करेगा और न ही उसे बुद्धि के बिना 'सत्य' का ज्ञान होना ।
इस शंका के निवारणार्थ श्री गौड़पाद ने इस मन्त्र में कहा है कि ज्ञान स्वयं प्रकाशमान है । इसे प्रकाशमान करने के लिए किसी अन्य ज्योति की
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