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( ३१४ ) दुःख-पूर्ण हैं तब यह (मन) स्वतः ज्ञान-योग की ओर प्रवृत्त हो जाता है । इस मानसिक रोग का श्री गौड़पाद ने जो निदान बताया है वह 'विवेक' है।
निवृत्तस्याप्रवृत्तस्य निश्चला हि तदा स्थितिः ।
विषया स हि बुद्धानां तत्साम्यमजमद्वयम् ॥८०॥ निज प्रवृत्तियों से मुक्त होने तथा इधर-उधर भटकते रहने की क्रिया को समाप्त करने पर मन शाश्वती पवित्रता की स्थिति को प्राप्त कर लेता है । बुद्धिमानों द्वारा इस स्थिति को भेदरहित, अज तथा अद्वैत जाना जाता है ।
पिछले मंत्र में हमें उन उपायों के विषय में बताया गया था जिनके द्वारा हमें अपने मन को नियंत्रण द्वारा स्थिर तथा संयत करना चाहिए । जब हमारा मन अपने अभीष्ट तथा परिचित पदार्थों की अोर नहीं भागता तब इसे 'स्थिर' कहा जाता है; किन्तु कभी हमारा मन दैनिक जीवन में हमारे सम्पर्क में आने वाले बाह्य-पदार्थों को छोड़ कर अतीत की विस्मृत वस्तु, घटना
आदि का चिन्तन करने लगता है और कभी यह भविष्य के सुन्दर सपनों को देखता हुआ अपने अभीष्ट पदार्थों के कल्पना-क्षेत्र में मग्न हो जाता है ।
वस्तुतः हमारा मन न केवल स्थान के क्षेत्र तक सीमित रहता है बल्कि कुछ अंश तक यह काल क्षेत्र में भी विचरता रहता है । इसलिए हमारा मन वर्तमान संसार की विविध वस्तुओं की ओर ही प्रवृत्त नहीं होता अपितु उपयुक्त विषयों के कार्य-क्षेत्र में प्रवेश करके यह उन वस्तुओं का चिन्तन करता रहता है जिनकी इसे लालसा बनी रहती है । यहाँ श्री गौड़पाद एक सरल किन्तु अर्थपूर्ण संकेत द्वारा हमें बताते हैं मन को न केवल वर्तमान पदार्थ-क्षेत्र से दूर रखा जाय बल्कि इसे भूत अथवा भविष्यत् काल में भटकने से भी रोका जाय ।
इस तरह जब साधक अपने मन को तीन-काल से सम्बन्धित विषयों से खींच कर स्थिर कर लेता है और यह (मन) एकान हो जाता है तब उस (साधक) को किसी प्रकार के विचार नहीं दबा सकते । विचार-शून्य मन ही
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