________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ३१३ )
सभी प्रकार के मानसिक परिभ्रमण तथा मिथ्या भय का एक ही कारण है और वह है व्यक्ति का श्रम से अवास्तनिक को वास्तविक मान बैठना । संसार के विषयों से संपर्क रखने के कारण मन अपने स्वरूप को भूल बैठता है और इस आत्म-रचित संसार के मोह बाल में स्वयं जा फँसता है । जब कोई महात्मा परिस्थितियों द्वारा रचित संसार अथवा अपने कल्पनाजगत् के वास्तविक मूल्य को ठण्डे दिल से आँकता है तब वह मन ही मन यह सोच कर लज्जित होता है कि उसने बाह्य-संसार तथा अन्तर्जगत को व्यर्थ में इतना महत्त्व दिया ।
ध्यानावस्थित साधक अपने मन को असंख्य मिथ्या-कल्पनामों के क्षेत्र से हटा कर प्रात्मानुभूति के नियमित प्रयास में लगाने का अभ्यास करता रहता है । इस श्रेष्ठ कार्य में प्रयत्नशील होते हुए उसके मन को अनेक वासनाएँ दूषित करती रहती हैं । कल्पित पदार्थों का चिन्तन करते रहने से हमारा मन उन्हें वास्तविक समझने लगता है । जितना अधिक यह इन वस्तुओं की मोर अधिक प्रवृत्त होता है उतने अधिक बल से ये (वस्तुएँ) उसे अपनी ओर आकर्षित करती हैं । इस कारण श्री गौड़पाद यहाँ कहते हैं कि अपने कल्पनाजगत् के अस्तित्व में हास्यास्पद ढंग से विश्वास रखते रहने से मन अनेक पदार्थों के पीछे-पीछे भागता रहता है ।
यदि यह बात सत्य मानी जाए तो वह कौन सा गुह्य साधन है जिसके द्वारा हम अपने मन को स्व-रचित इन्द्रिय-पदार्थों के क्षेत्र से हटाने में समर्थ हो सकते हैं ? मन की इस समस्या को हल करने के लिए हमें मानसिक-क्षेत्र में रहने की बजाय इसका अतिक्रमण करना होगा। इन्द्रियों द्वारा ग्राह्यपदार्थों की निर्मूलता अवास्तविकता को निज विवेक-बुद्धि द्वारा समझ लेने पर मन स्वतः इन उड़ानों को बन्द करके लौट आता है । यदि इस समय यह इधर-उधर भटकता फिर रहा है तो इसका यही कारण है कि यह (हमारा मन) विषय-पदार्थों की वास्तविकता तथा इनके क्षणिक सुख में आस्था रखता है; किन्तु जिस क्षण इसे यह अनुभव हो जाता है कि ये पदार्थ मिथ्या एवं
For Private and Personal Use Only