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( ३१५ )
अतिक्रमित मन कहा जाता है । जब मन अपनी सीमा को लाँघ लेता है तब यह आत्माराम के क्षेत्र में जा पहुँचता है।
मन को लाँघने के इस भाव को केवल एक काल्पनिक सिद्धान्त नहीं मानना चाहिए जिसका किसी आदर्शवादी दार्शनिक (utopian idle) कवि ने प्रतिपादन किया हो । इसकी पुष्टि उन सहस्रों ऋषियों द्वारा की गयी है जिन्होंने जीवन-ध्येय की प्राप्ति की । उन्होंने इस सम्बन्ध में जो घोषणाएँ की उनका संकलन करके संसार के महान् धर्म-ग्रन्थों की रचना की गयी। भाषा में विभिन्नता तथा अभिव्यक्ति में विषमता होने पर भी इनमें समान भाव का प्रकाश किया गया है । इस प्रकार विद्वानों ने घोषित किया है कि मन तथा बुद्धि की सीमा से परे जो अनुभूति होती है उसका सर्व-शक्तिमान्, अजात, अद्वैत और प्रभेद परमात्म-तत्व से सीधा सम्बन्ध होता है।
अजमनिद्रमस्वप्नं प्रभातं भवति स्वयम् ।
सकृद्विभातो होवेष धर्मो धातु स्वभावतः ॥१॥ जन्म, निद्रा तथा स्वप्न से रहित प्रात्मा अपने आप प्रकट होता है क्योंकि यह (आत्मा) स्वभाव से सदा प्रकाशमान् रहता है ।
अविकारी अर्थात् प्रजात आत्मा को श्री गौड़पाद यहाँ निद्रा तथा स्वप्न से रहित कहते हैं । यह एक विशेष बात है जहाँ केवल शब्दकोष की सहायता से शास्त्रों के मर्म को समझने में प्रयत्नशील रहने वाले अविकसित हिन्दू पण्डितों ने इस पवित्र विचार के अर्थ का अनर्थ कर दिया है । इस श्रेणी के मनुष्य यह विश्वास कर बैठते हैं कि आत्मा को अनुभव करने पर यति और मुनि न तो निद्रा प्राप्त करते हैं और न ही कोई स्वप्न देखते हैं।
__ यदि प्रात्मानुभूति का चिह्न स्वप्न-निद्रा से रहित होना है तब अनेक वृद्ध नर-नारी आत्मा से साक्षात्कार करने में समर्थ होंगे। यह विचार सर्वथा निकृष्ट है । शरीर को बनाये रखने के लिए निद्रा का पाना अवश्यम्भावी है । जब तक कोई ऋषि-मुनि इस पार्थिव शरीर को धारण किये रहता है तब तक उसका शरीर अपने धर्म का अवश्य पालन करता रहेगा।
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