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( ३११ ) चतुर्थ अध्याय में अब तक जो युक्तियाँ दी जा चुकी हैं उनमें हमें कारणवाद की निराधारता मानने तथा इसमें अन्ध-विश्वास न रखने की प्रेरणा की गयी है । यदि किसी साधक को एक बार यह ज्ञान हो जाए कि कारण-कार्य की भावना केवल हमारे नटखट मन के कारण होती है तब उसे आध्यात्मिक उद्देश्य-सिद्धि हो जाती है । यह बात हमें विदित है कि काल और स्थान की रचना केवल हमारे मन द्वारा ही की जाती है । मन का दूसरा क्रिया-क्षेत्र कारण-कार्य से सम्बन्धित रहता है और काल तथा अन्तर के बिना कारण-कार्य का अस्तित्व नहीं रह सकता।
हेतु-फल को निराधार जान लेने पर मन स्वतः प्रभावहीन हो जाता है । अपने कार्य-क्षेत्र में गतिमान् न रह सकने पर मन निष्क्रिय हो जाता है
और इस पर प्रभुत्व स्थापित होने का अर्थ विशुद्ध आत्मा के उच्च साम्राज्य में प्रवेश करना है।
इस ज्ञान-पूर्ण चेतनावस्था को ही आत्मीयता अथवा मुक्तावस्था कहते हैं जो जन्म से मृत्यु तक की निरर्थक, सीमित तथा दुःखपूर्ण जीवन-यात्रा की मिथ्या घटनाओं से हमें सुरक्षित रखने का दूसरा नाम है।
कोई व्यक्ति विस्मय-पूर्ण भाव से यह प्रश्न कर सकता है कि जीवन के इस समुज्ज्वल ध्येय की प्राप्ति के लिए इतना संघर्ष करना क्यों मावश्यक है ? निज वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके प्रात्म-स्वरूप की अनुभूति करना क्या एक महान् मुक्ति है ? प्रस्तुत मंत्र की दूसरी पंक्ति में श्री गौड़पाद ने इन नास्तिकों को सम्बोधित किया है ।
___ ऋषि कहते हैं कि अभ्यास द्वारा मन एवं बुद्धि को लाँघ लेने पर साधक आध्यात्मिक मोक्ष के शिखर पर जा पहुँचता है जहाँ उसे विषाद, कामना या भय की अनुभूति फिर कभी नहीं होती। अपने सीमित एवं नाशमान् जीवन में सदा आहें भरते रहने से हमें ये त्रिशूल-रूपी यातनाएँ सहन करनी होती हैं । यदि हम मनुष्य-जीवन की विविध क्रियाओं पर दृष्टि-पात करें तो हमें पता चलेगा कि हमारे अनुभव में आने वाले सब दुःखों का मूल-स्रोत ये
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