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यहाँ श्री गौड़पाद इस विचार की ओर संकेत करते हैं कि मनुष्य का मन, जिसे हम उसके जीवन-काल में प्राप्त की गयी वासनाओं का भण्डार कहते हैं, उसके उत्तम, अधम तथा मध्यम को द्वारा नियंत्रित रहता है। जिस ऋषि ने वैराग्य भाव से शरीर, मन तथा बुद्धि को लाँघ कर अपनी प्रात्मा से साक्षात्कार कर लिया है उसे 'मन' द्वारा रचित इन यथार्थताओं से कोई काम नहीं रहता और वह अपने मन की वासनामों के प्रभाव-क्षेत्र से अछूता रहता है । मन से पृथक् रहने पर वह ऐसी सभी देन तथा ज़िम्मेदारियों से मक्त हो जाता है जो उसके मन की वासनामों के द्वारा प्रकट की जाती है।
अपने पूर्व-कृत कर्मों से होने वाली वासनाओं से मनुष्य मधुर, कटु अथवा भाव-रहित गायन लिखता रहता है । ग्रामोफ़ोन के रिकार्ड की भान्ति एक समय गाया हुआ गीत दूसरे समय बजाया जा सकता है । ये मानसिक रिकार्ड (वासनाएं) हर्ष-विषाद, शान्ति-युद्ध प्रादि के गीत सुनाते हैं किन्तु यह तभी सम्भव होता है जब इनका सम्पर्क (ग्रामोफोन की तरह) सुई से हो । यह सुई हमारा 'अहंकार' है।
जब तक मनुष्य अपने शरीर तथा मन के साथ बंधा रहता है तब तक उसकी जीवात्मा उसके मन में वासनाओं को एकत्र करती रहती है; किन्तु जिस नर-श्रेष्ठ ने अपने मन को लाँघ अथवा अपने मिथ्याभिमान को खो कर प्रात्मानुभूति कर ली है उसमें उसके पूर्व-कृत कर्मों की कोई प्रतिक्रिया नहीं हो सकती । इस तरह मन को पूरी तरह उन्नत कर लेने पर पहले से बने रहने वाली सभी वासनाएँ अस्त-व्यस्त हो जाती हैं जिससे जीवात्मा जन्म-रहित हो जाता है।
अनिमित्तस्य चित्तस्य याऽनुत्पत्तिः समाऽद्वया ।
प्रजातस्यैव सर्वस्य चित्तदृश्यं हि तद्यतः ॥७७॥ ज्ञानावस्था या प्रजात एवं निर्लिप्त रहने वाले मन में किसी विकार के न रहने पर ही सर्व-शक्ति-सम्पन्न तथा शाश्वत स्थिति की अनुभूति होती है । इसलिए इससे इतर सभी पदार्थ जन्म-रहित
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