Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

View full book text
Previous | Next

Page 325
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१. ) होते हैं क्योंकि अनेकता का प्रदर्शन केवल हमारे मन के बहिर्मुखी होने के कारण रहता है। पिछले मंत्र में हम बता चुके हैं कि जिस व्यक्ति ने विवेक-पूर्ण वैराग्य से मन पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है उसके मन की वासनाओं की कोई प्रतिक्रिया नहीं हो सकती । जब तक हम अपने मन के वर्तक प्रिज्म (refracting prism) के द्वारा संसार को देखते रहते हैं तभी तक यह हमारी दृष्टि में महत्त्व रखता है; किन्तु जिस नर-शिरोमणि ने मन की सीमा को लाँघ लिया है उसे संसार के प्रति न तो कोई प्राकर्षण होगा और न ही किसी प्रकार का भय । श्री गौड़पाद ने इस सम्बन्ध में जो समुचित युक्तियाँ दी है उन्हें ध्यान में रखते हुए यह पदार्थमय संसार हमारे मन की भ्रान्ति की ही उपज है। अतः आत्मानुभव करने वाले मनुष्य का मन सिमिट कर अपने प्राधार (सनातन-तत्त्व) का निरावरण कर देता है । जिस प्रकार रज्जु का ज्ञान होने पर सर्प का समूल नाश हो जाता है वैसे ही आत्म-साक्षात्कार होने पर हमारे मन द्वारा रचित नाम-रूप संसार का लोप हो जाता है । संक्षेप में इस 'कारिका' के महान् रचयिता कहते हैं कि ज्ञान की अलौकिक उषा के निखरने पर, जिसके दर्शन के लिए साधक इतना घोर परिश्रम करता रहता है, उस (साधक) को परम-शान्ति एवं सुख के अक्षुण्ण भण्डार 'प्रात्मा' के दर्शन हो जाते हैं क्योंकि तब वह अपने आप को इस दिव्य ज्योति से दूर रखने वाले दुर्ग-रूपी मन की उत्तुग प्राचीरों से घिरा हुआ नहीं पाता। बुद्ध्वाऽनिमित्तत्तां सत्यां हेतु प्रथगनाप्नुवन् । वीतशोकं तथा काममभयं पवमश्नुते ॥७॥ जिसने 'प्रात्मा' को, जो एक असीम सत्य है, कारण-रहित जान लिया है और जिसे फिर जन्म लेने का कोई कारण उपलब्ध नहीं ता, वह व्यक्ति उस मुक्ति की प्राप्ति कर लेता है जहाँ शोक, कामना और भय के लिए कोई स्थान नहीं रहता । For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359