Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 323
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३०८ ) होती है, 'उत्तम' कर्म कहलाते हैं । 'अधम' वर्ग के कर्म हममें पाशविक प्रवृत्तियाँ लाते रहते हैं । इन कुकृत्यों की मनुष्य के मन पर इतनी गहरी छाप पड़ती है कि इनसे सम्बन्धित वासनाओंों की तुष्टि के लिए उसे निम्न श्रेणी के पशु आदि की योनि में आना पड़ता है । इस तरह वह व्यक्ति नये नये अनुभव प्राप्त करता तथा जन्म-मृत्यु के जाल में बँधा रहता है । 'मध्यम' कर्म वे धम्मिक अनुष्ठान हैं जिनका यज्ञ-यागादि ( अथवा दिखावे के लिए किये गये धर्माडम्बर) से सम्बन्ध रहता है । ये कृत्य केवल स्वार्थसिद्धि की धारणा से किये जाते हैं । इनका फल भोगने के लिए मनुष्य को नरयोनि में आना पड़ता है | पुनर्जन्म के विचार का हिन्दुत्रों तथा संसार के अन्य धर्मों द्वारा विरोध किया गया है । दूसरे धर्मावलम्बी इसका संकुचित अर्थ लेते हैं जब कि वे हिन्दु इसका समर्थन नहीं करते जो शास्त्रों में पूर्ण निष्ठा न रख कर निष्क्रिय तथा असमर्थ बैठे रहना पसन्द करते हैं। वास्तव में कर्मवाद एक दार्शनिक तथ्य है जिसे पूरा समझ लेने पर हम में प्रेम का अधिक मात्रा में संचार होता है और हम अटूट बल तथा साहस से जीवन की विविध परिस्थितियों से लोहा लेने में समर्थ हो जाते हैं । कर्मवाद को भूल से 'भाग्यवाद' कहा जाता है । यदि सब कुछ 'भाग्यबाद' के अधीन होता रहता तो हमारा धर्म अथवा उच्च प्रादर्श कभी का समाप्त तथा विस्मृत हो चुका होता । ऐतिहासिक तथा सामाजिक उतारचढ़ाव होते रहने पर भी यदि हमारा धर्म अब तक जीवित रह सका है तो यह समझना चाहिए कि हिन्दुनों के महान् श्रादर्श सुदृढ़ तथा शक्ति सम्पन्न हैं। जब हम कर्मवाद का रहस्य पूर्ण रूप से समझ लेंगे तब हमें पता चलेगा कि यह न केवल भाग्यवाद की व्याख्या करता है बल्कि इसमें विचारों की प्रगल्भता भी पायी जाती है । यदि इसका अधूरा ज्ञान प्राप्त किया जाय तो ऐसा प्रतीत होगा कि मनुष्य अपने भाग्य का एक खिलौना है । इस प्रसंग में हम इस विचार पर अधिक प्रकाश नहीं डाल सकेंगे । For Private and Personal Use Only

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