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( २६५ )
अपने आप को राजा मान बैठूं तो मेरा जीवन दूभर हो जायेगा । निद्रा आने से पहले मैं राजा नहीं था और न ही जागने पर मुझे इस स्थिति का अनुभव हुआ । इसलिए वह वस्तु, जिसका आदि और अन्त नहीं है, मध्यावस्था में मिथ्यात्व के अतिरिक्त और कुछ प्रकट नहीं कर सकती - आत्मानुभूति और विवेक-बुद्धि वाले विद्वानों का यह मत है ।
सर्वे धर्मा मुषा स्वप्ने कायस्यान्तनिदर्शनात् । संवृतेऽस्मिनप्रदेशे वै भूतानां दर्शनं कुतः ||३३||
स्वप्न में दिखायी देने वाले सभी पदार्थ अवास्तविक होते हैं क्योंकि वे शरीर के भीतर देखे जाते हैं । उन वस्तुओंों का जो इस प्रकार देखी जाती हैं, वहां ( शरीर में ) रहना किस प्रकार संभव हो सकता है ?
इससे पहले किसी अध्याय में इस मंत्र की व्याख्या की जा चुकी है किन्तु यहाँ इसका अधिक महत्व दिखाने के लिए इसका फिर उल्लेख किया गया है । साधारणतः स्वप्न हमारे भीतर ही देखा जाता है किन्तु स्वप्न में देखी जाने वाली वस्तुएँ हमारे शरीर के किसी भाग में नहीं रह सकतीं । इस प्रकार हमारे भीतर इन वस्तुओं के लिए कोई स्थान न रहने पर भी हम इन ( दृष्ट पदार्थों) को वहाँ नहीं पाते जिससे इनका आभास मिथ्यात्व पर निर्भर रह सकता है ।
श्री गौड़पाद आने वाले मन्त्रों में हमें अधिक युक्तियों द्वारा यह बतायेंगे कि हमें स्वप्न में दिखायी देने वाले पदार्थों को वास्तविक क्यों नहीं मानना चाहिए। भारत के कुछ एक दार्शनिक अब भी स्वप्न-जगत् को वास्तविक मानते हैं । इन मंत्रों में इस दिशा में उपयुक्त उत्तर दिया गया है । स्वप्न की यथार्थता में निश्चय रखने वाले व्यक्ति कहते हैं कि जब तक स्वप्न-द्रष्टा स्वप्न देखता है उसका स्वप्न वास्तविक रहता है । नीचे लिखे मंत्र में इस धारणा की निराधारता को दिखाया जायेगा ।
न युवतं दर्शनं गत्वा कालस्यानियमाद्गतौ । प्रतिबुद्धश्चवै सर्वस्तस्मिन्देशे न विद्यते ॥ ३४ ॥
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