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( २७१ ) की तुलना विवेक द्वारा की जानी चाहिए अन्यथा इस प्रकार की भ्रान्ति सहज में हो सकती है।
गत मन्त्र में जो युक्तियां दी गयी हैं उनसे यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि एक विवेक-हीन व्यक्ति के मन में कारण-कार्य के पारस्परिक सम्बन्ध की भावना नहीं रह सकती । विवेक-दृष्टि से इन दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता; इस कारण विद्वानों ने अजात (अर्थात अविकास) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
इस तरह यदि हम यह कहें कि अवास्तविक संसार की उत्पत्ति यथार्थ परम-तत्व से हुई तो यह एक परस्पर-विरोधी बात होगी क्योंकि इसे तर्क की कसौटी पर परखना एक असंभव बात होगी। भला हम इस बात को किस प्रकार मान सकते हैं कि यथार्थ-तत्व से यथार्थ की उत्पत्ति होती है क्योंकि तत्त्व तो पहले से ही विद्यमान रहता है । हम यह नहीं कह सकते कि हमारा जन्म हमारे द्वारा हुअा । साथ ही किसी वस्तु से भिन्न वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती । जैसे कोई स्त्री घोड़े को जन्म नहीं दे सकती।
असञ्जागरिते दृष्टवा स्वप्ने पश्यति तन्मयः ।
असत्स्वप्नेऽपि दृष्ट्वा च प्रतिबुद्धो न पश्यति ॥३६॥ जाग्रतावस्था में दिखायी देने वाली अवास्तविक वस्तुओं से बहुत प्रभावित होने के कारण मनुष्य इन्हीं वस्तुओं को स्वप्न में देखने लगता है । स्वप्न में देखे गये अवास्तविक पदार्थ जाग्रतावस्था में फिर नहीं देखे जाते।
वेदान्त के विचार से विरोध रखने वाले कहते हैं कि “यदि स्वप्न को जाग्रतावस्था के अनुभव की प्रतिक्रिया मान लिया जाय तो वेदान्तवादी कारणसिद्धान्त को अवास्तविक क्यों कहते हैं।" इसका यह उत्तर दिया जा सकता है कि मिथ्या वस्तु की उत्पत्ति के मूल-कारण का वास्तविक होना आवश्यक नहीं । एक अवास्तविक एवं मिथ्या वस्तु से भी मिथ्या वस्तु की उत्पत्ति हो सकती है। एक भूत को देख लेने पर (जिसका अनुभव केवल हमारे मन
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