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( २८४ ) सकता है ? प्राकाश में दिखायी देने वाला इन्द्र-धनुष मिथ्या है जिससे यह न तो आकाश में से निकलता है और न ही उसमें प्रविष्ट होता है ।
ऐसे ही विक्षिप्त मन के सम्पर्क में आने पर विशुद्ध-चेतना गतिमान् होती प्रतीत होती है और इस (मन) के प्रकम्पन में विविध नाम-रूप पदार्थों का आभास देने लगती है । ये अनेक आकार संसार की रचना नहीं करते और न ही यह संसार विशुद्ध चेतना में ही लीन होता है। आने वाले मंत्रों में इस दृष्टान्त की अनुकूलता को विस्तार से समझाया जायेगा।
विज्ञाने स्पन्दमाने वै नाऽऽभासा अन्यतोभुवः । न ततोऽन्यत्र निस्पन्दान्न विज्ञानं विशन्ति ये ॥५१॥ न निर्गतास्ते विज्ञानात् द्रव्यत्वाभावयोगतः । कार्यकारणताभावाद्यातोऽचिन्त्यः सदैव ते ॥५२॥
जब चेतना को स्पन्दन के विचार से देखते हैं तब इसमें दिखायी देने वाले रूप कहीं अन्य स्थान से नहीं आते । जब यह क्रिया-रहित दिखायी देती है तब इस निश्चेश्ठ चेतना से वे रूप कहीं दूसरे स्थान पर नहीं चले जाते ।।५१॥ ____ इन रूपों का चेतना में कभी प्रवेश नहीं होता और न ही ये इसमें से बाहर निकलते हैं क्योंकि इनमें कोई यथार्थता नहीं है।
ये (रूप) हमारी कल्पना-शक्ति से परे रहते हैं क्योंकि इनमें कारण-कार्य भाव की कोई प्रतिक्रिया नहीं रहती ।।५२॥
इन दो मंत्रों में 'अलात' के दृष्टान्तों को अंश में स्पष्ट करके हमें बताया गया है कि अध्यात्म-क्षेत्र में 'विशुद्ध-चेतना' इस (पालात) के समान क्रियमाण होती प्रतीत होती है। इन दोनों में जो समानता पायी जाती है वह इन मंत्रों के ऊपर दिये गये अर्थ से ही स्पष्ट हो जायेगी । यदि हमें किसी कठिनाई का सामना करना होगा तो वह यह है कि इन मिथ्या नाम-रूप पदार्थों के प्रकट होने के कारण तथा इनके दिखायी देने की विधि हमारी समझ में नहीं पा सकती।
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