Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 298
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८३ ) और न ही कहीं बाहर चले गये । हम यह भी नहीं कह सकते कि वे (प्राकार) इस लकड़ी के जलते हुए सिरे में प्रविष्ट होगये क्योंकि जब वे वहाँ से प्राये ही नहीं तो उनका वहां से लौट जाना किस प्रकार सम्भव होगा ? अात्मा पर लागू होने वाला दृष्टान्त ५१ वें श्लोक में समझाया जायेगा। न निर्गता अलातात द्रव्यत्वाभावयोगतः । विज्ञानेऽपि तथैव स्थुराभासस्याविशेषतः ॥५०॥ जलने वाली लकड़ी से विविध आकार प्रकट नहीं होते क्योंकि वे ठोस पदार्थ नहीं हैं । यही बात चेतना में घटित होती है क्योंकि इन दोनों स्थितियों में समान रूप प्रत्यक्ष होते हैं। श्री शंकराचार्य ने अपने भाष्य में इन शब्दों द्वारा इस बात को स्पष्टतः समझाया है "साथ ही वे प्राकार 'अलात' में से इस तरह प्रकट नहीं होते जैसे किसी घर में से कोई बाहर निकलता दिखायी देता है ।" जब किसी वस्तु में से कोई और वस्तु निकलती है तब निकलने वाली वस्तु को उस पदार्थ से सर्वथा भिन्न होना चाहिए जिसमें से वह स्वयं प्रकट हुई है। एक जननी अपने प्रापको जन्म नहीं दे सकती; वह एक शिशु को उत्पन्न कर सकती है जो उसके अपने आकार से पृथक् होता है । उस जलती हुई लकड़ी के सिरे में से वे प्राकार प्रकट नहीं हो सकते क्योंकि उन (आकारों) का अस्तित्व ही नहीं है । ऐसे ही हम इतना भी नहीं कह सकते कि वे उस लकड़ी के भीतर घुस गये । किसी वस्तु में किसी यथार्थ वस्तु का ही प्रवेश हो सकता है, न कि एक काल्पनिक पदार्थ का । हम किसी बोतल में मृग-तृष्णा जल नहीं भर सकते और न ही किसी बोतल में से यह (जल) बाहर डेल सकते हैं । ठीक ऐसे ही ये विविध आकार, जिनमें यथार्थता का लेशमात्र नहीं, न तो उस लकड़ी में से निकलते हैं और न ही इनका उसमें प्रवेश होना सम्भव है । जब ये वहां से निकले ही नहीं तो फिर इनका उसमें प्रवेश कैसे हो For Private and Personal Use Only

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