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( २६५ ) चाहते हैं कि माया द्वारा परिवेष्ठित रहने पर सभी कुछ संभव रहता है । स्वप्न में किये गये विवाह के बाद माया-रूपी सन्तान का होना एक असंभव बात नहीं होती । ऐसे ही माया से मिथ्या पदार्थ की रचना हो सकती है। माया अथवा प्रज्ञान 'भ्रान्ति' का दूसरा नाम है और इसी से पदार्थमय-संसार की सृष्टि होती है। प्राने वाले ६१ तथा ६२ मंत्र में इस स्वप्न के उदाहरण को विस्तार से स्पष्ट किया जायेगा।
नाजेषु सर्वधर्मेषु शाश्वताशाश्वताभिधा ।
यत्र वर्णा न वर्तन्ते विवेकस्तत्र नोच्यते ॥६०॥
अजात अहंकार के लिए नित्यता तथा अनित्यता शब्दों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। जिसे शब्दों द्वारा वर्णन नहीं किया जाता उसमें वास्तविकता अथवा मिथ्यात्व का विवेक करना असंभव है।
यदि हम एक बार इस बात को स्वीकार कर लें कि मन तथा इन्द्रियों द्वारा अनुभूत पदार्थमय-संसार मिथ्या है तो फिर इसके नित्य या अनित्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हम स्वप्न में प्राप्त की गयी सन्तान की जन्मकुण्डलियाँ कभी नहीं बनाने बैठते । जब उनका जन्म ही कल्पना पर आधारित है तो उनके भविष्य के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त करना व्यर्थ होगा। अनेकता-पूर्ण संसार को मिथ्या मान लेने के बाद एक सच्चा वेदान्तानुयायी नित्य अथवा अनित्य तथा वास्तविक या अवास्तविक में विवेक करना आवश्यक नहीं समझता।
संसार के मिथ्या होने के रहस्य को जान लेने के बाद विवेक-बुद्धि कोई काम नहीं देती । जब तक परिभ्रान्त जीवात्मा दृष्ट-संसार की यथार्थता में दृढ़ विश्वास रखता है तब तक उसे वास्तविक तथा अवास्तविक या सत्य
और असत्य में विवेक करना पड़ता है। किन्तु आत्मा को अनुभव कर लेने पर इस विवेक-बुद्धि की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि खम्भे का यथार्थ ज्ञान होजाने पर 'भूत की भ्रान्ति' तथा खंभे की वास्तविकता में भेद करना
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