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( २९४ )
को निवारण करने के उद्देश्य से श्री गौड़पाद कहते हैं कि माया का स्वयं कोई अस्तित्व नहीं है । इस तरह हम यह कह सकते हैं कि प्रत्यक्ष संसार भ्रान्ति-जन्य भ्रान्ति है और इस (संसार) में वास्तविकता का होना ऐसे ही संभव है जैसे एक वन्ध्या के पुत्र की ज्येष्ठ पुत्री का जन्म होना । इस कन्या का जन्म होना असंभव है क्योंकि इसके पिता की सत्ता ही नहीं है ।
यथा मायामयाद्वीजाज्जायते तन्मयोऽङ्करः ।
नासौ नित्यौ न चोच्छेदी तद्वद्धर्मेषु योजना ॥५६॥
एक माया-रूपी बीज से माया-रूपी अंकुर निकलता है । यह मिथ्या अंकुर न तो नित्य है और न ही अनित्य । यही बात जीवों के लिए घटित होती है ।
यहाँ विद्यार्थियों के मन में यह शंका उठ सकती है कि जब प्रादि-मूल पदार्थ मिथ्या है तो उससे मिथ्या पदार्थों की उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है । यहाँ इस भाव को एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है । हमारे देश में जादूगर यह प्रसिद्ध खेल बहुधा दिखाया करते हैं । जादूगर दर्शकों को एक मिथ्या बीज दिखाता है और उसे पृथ्वी पर रख कर मिट्टी में रखता, जल देता तथा एक टोकरे द्वारा ढक देता है । कुछ क्षण में जब वह टोकरा उठाता है तो चकित दर्शक वहाँ एक अँकुर जमा हुआ देखते हैं । इसके बाद वह ( जादूगर ) उस अंकुर को फिर भूमि पर रखता, पानी देता तथा टोकरे से ढक देता है और पास खड़े हुए व्यक्तियों के विस्मय की सीमा नहीं रहती जब टोकरा उठाये जाने पर उन्हें उस अंकुर के स्थान में एक फलदार वृक्ष दिखायी देता है ।
जब टोकरा तीसरी बार उस पर रखने के बाद उठाया जाता है तब विस्मित दर्शक को उस अंकुर के समीप पड़ा हुआ पका फल दिखायी देता है । उस समय जादूगर पके फल की फाँकें काट कर उसे प्राश्चर्य चकित दर्शकों में बाँट देता है और वह ग्राम बड़ी रुचि से खाया जाता है ।
वेदान्ताचाय्यं इस उदाहरण द्वारा साधकों के मन पर यह अंकित करना
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