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( ३०२ ) कर्ता-कर्म के पारस्परिक सम्बन्ध के कारण अनुभव में आने वाला यह द्वैतपूर्ण संसार केवल हमारे मन के क्रियमाण होने की प्रतिक्रिया है । मन किसी अवस्था में किसी पदार्थ के सम्पर्क में नहीं आता । इस कारण इस (मन) को सनातन तथा निलिप्त कहा गया है। ___अब तक हम जो कुछ कह पाये हैं उससे यह बात पूर्णतः स्पष्ट होगयी होगी कि कर्ता-कर्म के पारस्परिक सम्पर्क के परिणाम-स्वरूप जो संसार हमें दिखायी देता है वह केवल हमारे मन के गतिमान होने की प्रतिक्रिया है । वास्तविकता की दृष्टि में मन स्वतः प्रक्षेपण मात्र है जिससे इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है । यह (मन) तो आत्मा में आरोपमात्र है । इस कारण स्वभावतः इसका किसी बाह्य-पदार्थ से सम्पर्क नहीं हो सकता; मन और प्रात्मा दो भिन्न वस्तुएँ नहीं है । अतः वेदान्तवादी मन को सनातन तथा निलिप्त मानते हैं । रज्जु (रस्सी) के दृष्टिकोण से सर्प विष-रहित है तथा वह बटोही को भयभीत करने की क्षमता रहीं रखता।
योऽस्ति कल्पितसंवत्या परमार्थेन नास्त्यसौ । __ परतंत्राभिसंवृत्या स्यान्नास्ति परमार्थतः ॥७३॥
माया के आधार पर रहने वाली वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं होता । जिसकी सत्ता अन्य विचार-धारा वालों की धारणाओं पर निर्भर रहती कही जाती है वह सत्यतः असत् है ।
___ अपने भाष्य में श्री शंकराचार्य यहाँ यह विचार प्रकट करते हैं कि प्रस्तुत मंत्र में श्री गौड़पाद एक संभावित शंका का समाधान कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में शंका करने वाले यह कह सकते हैं कि यदि मन पदार्थों से कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं करता और यदि वेदान्तवादियों के मतानुसार समस्त संसार के अस्तित्व को न भी माना जाय तो धर्म-ग्रन्थ, गुरु तथा शिष्य की भावना को भी सत्य नहीं माना जा सकता । इस मंत्र में इस शंका का विस्तार-पूर्वक समाधान किया गया है ।
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