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( ३०३ )
सर्व- शक्तिमान् वास्तविक तत्व के दृष्टिकोण से जब परमात्मा से साक्षात्कार किया जाता है तब शास्त्र, गुरु और शिष्य भी भ्रान्ति-पूर्ण मन की उपज दिखायी देते हैं; इस पर इनके प्रति श्रद्धा तथा सत्कार का प्रदर्शन किया जाता है । शास्त्रों ने तो इनकी महिमा का बहुत अधिक बखान किया है क्योंकि मन की असंख्य कल्पनाश्रों में इन्हें बड़ा महत्व प्राप्त है । ये आत्मा के लिए औषधि के समान हैं । स्वप्न में भी एक भयानक दृश्य अथवा जीव हमारे स्वप्न को भंग करता है जिससे हम घबरा कर उठ बैठते हैं; वैसे ही मन के सभी व्यापारों में शास्त्राध्ययन विशेष महत्व रखता है । 'ध्यान' का अभ्यास और शास्त्रों का पठन करते रहने से हम परिणामतः संसार के अज्ञान रूपी तिमिर का त्याग करके विद्वत्ता के प्रकाशमान शिखर पर जा पहुँचते हैं ।
चाहे कितने दार्शनिक 'सर्व- शक्तिमान्' परमात्मा के विरुद्ध कुछ ही कहें वास्तविक का वास्तविक होना असंभव है । व्यक्तियों द्वारा समर्थन प्राप्त करने से ही 'सत्य' की सत्ता बनी नहीं रहती और न ही बहुमत इसके विरुद्ध होने से इसकी यथार्थता में कोई दोष आ सकता है । इस (सत्य) के क्षेत्र में लोकतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं है । 'सत्य' का साम्राज्य अटल है चाहे कोई इसके पक्ष में हो या विरोध में ।
प्रजः कल्पित संवृत्या परमार्थेन नाप्यजः । परतन्त्राभिनिष्पत्या संवृत्या जायते तु सः ॥७४॥
नित्य प्रति के मिथ्या अनुभवों के दृष्टिकोण से 'आत्मा' अजात कही जाती है । यदि सच माना जाय तो यह ( आत्मा ) अजात भी नहीं है । दूसरी विचार धाराएँ रखने वालों की दृष्टि में 'जात' आत्मा जन्म लेती हुई दिखायी देती है । वैशेषिकों द्वारा मुख्यतः यह शंका की जाती है । गत मंत्र में अपने संशय को स्पष्ट करने के बाद अब वे वेदान्त-वादियों के उत्तर का प्रत्युत्तर देते हुए एक अन्य समस्या ला खड़ी करते हैं । वे कहते हैं कि यदि शास्त्रों के पठन-पाठन आदि को मिथ्या मान लिया जाय तो शास्त्रों द्वारा जिस आत्मा
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