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( ३०४. ) का वर्णन किया गया है वह भी वेदान्ताचार्यों की मिथ्या कल्पना के आधार पर कल्पित होगी। भगवान् शंकराचार्य अपने भाष्य में कहते हैं कि यह प्रश्न द्वैतवादियों द्वारा पूछा गया है। यदि आपने गत मंत्र की व्याख्या ध्यानपूर्वक सुनी है तो आपके मन में भी यही प्रश्न उठा होगा। श्री गौड़पाद इस प्रश्न को सारहीन नहीं मानते बल्कि यह कहते हैं कि यह बात सत्य है । शास्त्रों में आत्मा को 'अजात' कहा गया है और इसका यह गुण निश्चय से आत्मा में मिथ्या आरोप है क्योंकि इसका जन्म-रहित होना तभी संभव होगा जब इसका विपरीत गुण 'जन्म' भी पाया जाय ।
वास्तविकता की ओर दूर से संकेत करते हुए 'अजात' शब्द का प्रात्मा के लिए उपयोग किया गया है। माया के घोर आवरण में रहते हुए हम जन्म तथा मृत्यु के पाश में बंधे हुए हैं। इस कारण शास्त्र हमारी ही स्थूल अज्ञान भाषा में हमें यह तथ्य समझा रहे हैं। शास्त्र अपने उच्च स्थान को छोड़ हमारे अपने स्तर पर आकर इस सर्व-शक्तिमान् तत्व की व्याख्या करते हैं। 'आत्मा' को वर्णन करने के लिए जिस दिव्य भाषा की आवश्यकता है उसके स्थान में हमारी सीमित भाषा पूर्णतः असमर्थ रहती है ।
__ 'सत्य' की अनेक परिभाषाएं करने में यह बात सब जगह चरितार्थ होती है, जैसे-'यह सब ब्रह्म है"; "यह आत्मा ब्रह्म है", "सर्व सत्ता, ज्ञान, सुख" आदि । ये सब परिभाषाएँ सांकेतिक है न कि तथ्यों का सम्पूर्ण विवरण । सीमित शब्दों द्वारा असीम को पूर्ण रूप से शब्द-बद्ध करना सर्वथा असंभव है । यदि इस दिशा में कोई प्रयास किया जाता है तो मिथ्या पदार्थमय संसार के सापेक्ष अनुभव को ध्यान में रखकर ही इस ओर पग उठाया जाता है। हमारी मिथ्या भाषा में 'अजातवाद' भी उस वास्तविक तत्व को वर्णन करता है जो न तो शब्दों द्वारा सीमित किया जा सके और न ही हमारी मानसिक एवं बौद्धिक परिधि में पाए । __कार्य-कारण में विश्वास रखने के कारण सांख्यिकी 'आत्मा' को जन्म लेने वाला मानते हैं। इस विचार के विरुद्ध वेदान्तानुयायी 'आत्मा' को
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