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( ३०५ ) अजात कहते हैं । एक अज्ञान-पूर्ण विचार का खण्डन करने के लिए इसी दावे को बनाये रखना केवल अज्ञान का प्रदर्शन करना है । एक अवास्तविक भाव का उन्मूलन करने के लिए उसी पर बल देना उसी भाव की पुनरावृत्ति करना है; किन्तु वेदान्त की महानता इसी बात में है कि इस उक्ति द्वारा सनातन, परिपूर्ण, अजात तथा सर्वशक्तिमान् की ओर संकेत किया जाता है । सापेक्ष स्तर पर ही भाषा अथवा ज्ञान के दूसरे उपकरणों को व्यवहार में लाया जा सकता है । जब हम परमात्म-तत्व की व्याख्या करने के लिए इन्हें उपयोग में लाते हैं, तो 'आत्मा' के वास्तविक स्वरूप का पता लगाना दुष्कर हो जाता है।
अभूताभिनिवेशोऽस्ति द्वयं तत्र न विद्यते । द्वयाभावं स बुद्ध्वैव निनिमित्तो न जायते ॥७५॥
मनुष्य अवास्तविक को हठ से वास्तविक ही मानता है, किन्तु द्वैतभाव का कोई अस्तित्व नहीं है । जो द्वैत-भाव की सत्ता को अनुभव नहीं करता उसका फिर जन्म नहीं होता क्योंकि उसके लिए जन्म लेने का कोई कारण ही नहीं रहता।
अब तक जो कुछ कहा जा रहा है कदाचित् उसका उपसंहार करते हुए श्री गौड़पाद यहाँ यह सिद्ध करना चाहते हैं कि अवास्तविक होने पर भी यह पदार्थमय संसार हमें वास्तविक क्यों दिखायी देता है । ऋषि कहते हैं कि यह बात अभिनिवेश (दृढ़ विश्वास) के कारण है । खेद है इस मंत्र के यथार्थ भाव तथा सौन्दर्य को इतने अच्छे ढंग से लेखनीबद्ध नहीं किया जा सकता। "अभिनिवेश" न केवल सुदृढ़ विश्वास है बल्कि यह मिथ्या ज्ञान में मन को पूर्णरूप से अतिव्यस्त रखने का वह उपाय है जो हमें हास्यास्पद अज्ञान से बाहिर नहीं निकलने देता। मुझे विश्वास है कि इतना कुछ कहने पर भी मैं आपको 'अभिनिवेश' शब्द का अर्थ ठीक ठीक नहीं समझा पाया है। इसमें आस्था रखने वाले मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है।
एक भ्रान्त व्यक्ति पदार्थमय संसार के विविध पदार्थों में हठ-पूर्ण विश्वास रखता है । जितनी अधिक मात्रा में यह मिथ्या धारणा हममें रहगी
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