Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

View full book text
Previous | Next

Page 312
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२९७ ) प्रकार स्वप्न में इधर-उधर घूमते हुए उसे अण्डज, स्वेदज आदि जिस जिस प्राणी का रूप दिखायी देता है वे सब उसके मन की ही उपज होते हैं । यही बात जाग्रतावस्था में घटित होती है। स्वप्नदृचित्तदृश्यास्ते न विद्यन्ते ततः पृथक् । तथातदृश्यमेवेदं स्वप्नदृचित्तमिष्यते ॥६४॥ स्वप्न-द्रष्टा के मन से उत्पन्न होने वाले इन भिन्न दृश्यों की मन के बिना कोई सत्ता नहीं होती। ऐसे ही स्वप्न-द्रष्टा का मन केवल अपने द्वारा ही देखा गया माना जाता है। इसलिए स्वप्न देखने वाले का मन उससे पृथक् नहीं रहता। हम पहले बता चुके हैं कि पदार्थमय संसार तथा अन्तर्जगत की मोहग्रस्त मन द्वारा ही रचना की जाती है। इस सम्बन्ध में समुचित निष्कर्ष निकालने के उद्देश्य से यहाँ जाग्रत तथा स्वप्न अवस्थाओं की पूर्ण तुलना की जा रही है। स्वप्न के विविध पदार्थ स्वप्न-द्रष्टा के मन के विविध रूप ही होते हैं। स्वप्न देखने वाले का मन उसके स्वप्न-सम्बन्धी विचारों का प्रवाह ही तो है । इस भाव को मैं स्पष्ट रूप से समझाऊँगा । जब मैं स्वप्न देखता हूँ तब स्वप्नावस्था के सभी पदार्थ मेरे मन की ही उपज होते हैं। स्वप्न में मेरे मन के द्वारा जिस सृष्टि की रचना की जाती है उसमें मैं अपने आप को भी इधर उधर घूमते देखता रहता हूँ । मेरा स्वप्न वाला स्वरूप भी मेरा मन ही है । स्वप्न में दिखायी देने वाला मेरा यह व्यक्तित्व भी एक 'मन' रखता है जिसके द्वारा स्वप्न के विविध अनुभव प्राप्त किये जाते हैं। यदि हम इससे भी आगे विचार करें तो हमें यह पता चलेगा कि यह 'मन' भी स्वप्नावस्था की अनुभूति करके भ्रान्ति की उत्पत्ति करता रहता है। ___इस तरह मेरे स्वप्न के व्यक्तित्व का मन भी मेरे भ्रम के कारण गतिमान् होकर विविध पदार्थों की रचना करता है जिससे हम यह परिणाम निकालते हैं कि स्वप्न-जगत वस्तुतः हमारे मन का खेल ही है । यदि स्वप्ना For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359