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( २६६ )
बुद्धिमत्ता नहीं है । खंभे को देखने वाले के लिए उस (खंभे) में किसी भूत का भयावना प्राकार रह ही नहीं सकता ।
यथा स्वप्ने द्वयाभासं चित्त चलति मायया । तथा जानद्वयाभासं चित्त चलति मायया ॥६१॥
जिस तरह स्वप्न में माया के कारण मन द्वैत की रचना करता प्रतीत होता है वैसे ही जाग्रतावस्था में मन माया के द्वारा अनेक रूपों की व्याख्या करता रहता है ।।
अद्वयं च द्वयाभासं चित्तं स्वप्ने न संशयः । अद्वयं च द्वयाभासं तथा जाग्रन्न संशयः ॥६२॥
मन अद्वैत होता हुआ स्वप्न में अनेक रूपों में विभक्त हो जाता है। वैसे ही जाग्रतावस्था में यही एकमात्र मन अपने 'दो' होने का आभास देता है।
इन दोनों मंत्रों पर तीसरे अध्याय के २६ और ३०वें मंत्र में प्रकाश डाला जा चुका है । यहाँ इस विचार की पुनरावृत्ति की गयी है ताकि छात्र इस रहस्य को दृढ़ता से समझ सकें। इस सम्बन्ध में तीसरे अध्याय को देखिए।
स्वप्नदृक् प्रचरन् सर्वे दिक्षु वै दशसु स्थिताम् । प्रण्डजान्स्वेदजान्वाऽपि जीवान् पश्यन्ति यान् सदा ॥६३॥
स्वप्न-द्रष्टा स्वप्न देखते समय दशों दिशाओं में घूमता रहता है और उसे अण्डज, स्वेदज आदि अनेक प्राणी दृष्टिगोचर होते हैं; वास्तव में इन सब का (स्वप्न में) अस्तित्व नहीं होता केवल स्वप्न-द्रष्टा का मन ही गतिमान् रहता है।
स्वप्न देखते समय किसी व्यक्ति के पारिवारिक जन, इष्ट-मित्र तथा अपरिचित व्यक्ति ही, जो मन के प्रक्षेपण के कारण दीखते हैं, दृष्टिगोचर नहीं होते बल्कि उस (स्वप्न-द्रष्टा) को सभी दिशाओं में अनेक प्राणी दिखायी देते हैं। ये सब वास्तव में स्वप्न देखने वाले मन के ही अनेक रूप हैं । इस
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