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( २६६ ) सम्बन्ध स्थापित हो । ये तीनों (कर्ता, कर्म तथा इनका पारस्परिक सम्बन्ध) जब तक एक ही कालान्तर में क्रियमाण नहीं होते तब तक मनुष्य का मन अपने जीवन-व्यापार नहीं चला सकता । विषय-पदार्थों से मन निरन्तर वासनएँ प्राप्त करता रहता है। ये विषय-पदार्थ हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । हमारा मन ही द्रष्टा है जो पदार्थों को देखता रहता है । हम पदार्थों को देखते रहते हैं, इस कारण हम दृष्ट-पदार्थों को वास्तविक मानने लगते हैं। दृष्ट-पदार्थ के रहने पर ही द्रष्टा का होना संभव है; पदार्थों का होना तभी संभव है जब हम उन्हें देखने के योग्य हों। इस तरह हम देखते हैं कि मन तथा इसके द्वारा देखी जाने वाली वस्तुएँ दोनों एक दूसरे पर प्राश्रित रहते हैं । 'मन' की अनुपस्थिति में वस्तुओं का अस्तित्व नहीं रहता तथा वस्तुओं के न होने पर 'मन' निष्क्रिय रहता है। जब द्रष्टा (मन) तथा दृष्ट-पदार्थों को एक दूसरे से पृथक् माना जाय तो हम यह निश्चय नहीं कर सकते कि इनमें से कौन वास्तविक है । विद्वानों का तो यह मत है कि ये दोनों ( द्रष्टा और दृष्ट ) वास्तविक नहीं हैं।
दृष्ट के विना द्रष्टा तथा द्रष्टा के विना दृष्ट की यथार्थता सिद्ध नहीं की जा सकती । अलग रहते हुए इनकी कल्पना करना असंभव है । ऐसे कोई विशेष चिह्न नहीं जिनके द्वारा अनुभव-कर्ता को अनुभूत पदार्थ से पृथक् जाना जा सके । इस प्रकार पदार्थों के द्वारा मन की रचना होना सिद्ध नहीं किया जा सकता जब कि हम इतना समझते हैं कि द्रष्टा (मन) के बिना दृष्ट-पदार्थों का होना किसी भी अवस्था में मान्य नहीं है ।
__इस दिशा में हम जितनी अधिक गहराई से विचार करेंगे उतना ही अधिक हमें यह विश्वास होगा कि ये विषय-पदार्थ वास्तव में 'मन' ही हैं। 'शब्द' 'रूप', आदि विषय-पदार्थ, जिन्हें हम देखते हैं, हमारे कान, नेत्र आदि के सिवाय और कुछ नहीं हैं । हमारी पाँच इन्द्रियों का केन्द्र-विन्दु 'मन' है। इस कारण सभी धर्म-ग्रन्थों में विद्वान यही कहते आये हैं कि इन्द्रियाँ हमारे मन की प्रतिक्रिया ही हैं और बाह्य-संसार में इन्द्रियों का क्रियमाण होना ही इन्द्रियों के नाम से जाना चाहता है । जब मैं दूर से एक पुरुष देखता हूँ तो
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