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( २८ )
वस्था में यह विचार मान्य हो सकता है तो जाग्रतावस्था में भी इससे भिन्न स्थिति की सम्भावना नहीं हो सकती । अतः स्वप्न द्रष्टा का मन उससे पृथक् नहीं होता ।
चरन् जागरिते जाग्रद्दिक्षु वै दशशु स्थितान् । अण्डजान् स्वेदजान्वान्वाऽपि जीवान्पश्यति यान्सदा ॥ ६५ ॥ जाग्रचित्त क्षणीयास्ते न विद्यन्ते ततः पृथक् । तद्दृश्यमेवेदं जाग्रतश्चित्तमिष्यते ॥ ६६ ॥
तथा
सब प्रकार के अण्डज, स्वेदज आदि जीव, जिन्हें जाग्रत - मनुष्य अपनी जाग्रतावस्था में सभी दिशाओं में गतिमान होते देखता है, केवल उस ( जाग्रत - मनुष्य ) के मन की उपज हैं । ऐसे ही जाग्रतव्यक्ति का मन दूसरी जाग्रतावस्था में दृष्ट पदार्थ माना जाता है । इसलिए द्रष्टा का मन उससे पृथक नहीं रहता ।
इससे पहले जिन दो मंत्रों में स्वप्नावस्था की व्याख्या की गयी थी उसी क्रम से उपरोक्त दो मंत्रों में उस भाव को जाग्रतावस्था में यहाँ घटाया गया है क्योंकि इन दो अवस्थाओं के अनुभव भिन्न नहीं होते । कारिका, विशेषतः 'माया' शीर्षक अध्याय में हमने जो दृष्टान्त दिया है उसकी दृष्टि में वह भाव यहाँ भी चरितार्थ होता है ।
उभे ह्यन्योन्यदृश्यते ते किं तदस्तीति 'नोच्यते । लक्षण शून्यमुभयं तन्मतेनैव गृह्यते ॥६७॥
जब मन तथा जीव दोनों एक दूसरे को देखते हैं तब इनमें एक तत्व दूसरे के बिना कैसे रह सकता है। इन दोनों के पहचान के चिन्ह नहीं हैं क्योंकि एक को दूसरे के द्वारा ही जाना जा सकता है ।
हम सब अनुभव क्षेत्र में ही अपनी व्यक्तिगत सत्ता को बनाये रखते हैं। अनुभव की प्राप्ति तभी हो सकती है जब कर्ता और कर्म में एक निश्चित
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