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( २६२ ) जन्म की भावना केवलमात्र एक मिथ्या अनुभूति है जिसका आधार अज्ञान है। इस कारण ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो स्थायी हो । वास्तविक-तत्त्व के व्याप्त रहने के कारण किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती और न ही किसी का नाश होता है ।
श्री शंकराचार्य कहते हैं कि एक सज्जन विरोधी-पक्ष में खड़े हो कर 'कारिका' के उस स्थल पर प्राक्षेप करते हैं जहां जन्म-मृत्यु के चक्र का उल्लेख किया गया था । वह व्यक्ति कहते हैं- "यदि अजात आत्मा के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ का अस्तित्व नहीं है तब आप कारण तथा कार्य के प्रादि
और अन्त के विषय में किस कारण अपने विचार प्रकट करते हैं और साथ ही आप जन्म-मरण की शृंखला का हवाला क्यों देते हैं ?" प्रस्तुत मंत्र में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है ।
यहाँ 'संवृत्ति' शब्द नश्वर संसार के उन मिथ्या अनुभवों का द्योतक है जिनकी उत्पत्ति हमारे अज्ञान के कारण होती है। अज्ञान के क्षेत्र में रहने वाली इन भ्रमोत्पादक प्रतीतियों में कोई वास्तविकता नहीं होती । अद्वैत परमात्म-तत्त्व के विशुद्ध ज्ञान के उत्तुंग शिखर पर पहुँच जाने पर इस पदार्थमय संसार की अनुभूति ही नहीं होती और अजात 'आत्मा' के सिवाय और किसी का अस्तित्व शेष नहीं रहता । जब किसी का जन्म ही नहीं होता तो फिर उसकी मृत्यु किस प्रकार संभव होगी अर्थात् कारण और कार्य का विचार किस तरह रह सकेगा? तब जन्म-मृत्यु का चक्र भी न रह पायेगा । वस्तुतः न किसी का जन्म होता है और न ही किसी की मृत्यु होती है; जो कुछ हम देखते तथा अनुभव करते हैं वह विशुद्ध परम-चेतना ही है और वह अनादि तथा अनन्त है ।
यथार्थवादी कहते हैं कि नाम-रूप वाला संसार वास्तविक है और इसके विविध पदार्थ ही यथार्थ-तत्त्व (परमात्मा) के सूचक हैं । इनके विपरीत सनातन-तत्व में पदार्थ-मय संसार के अस्तित्व को आदर्शवादी नहीं मानते । इनके विचार में ये पदार्थ मनुष्य के मानसिक भागों की प्रतिच्छाया ही हैं ।
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