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( २८२ ) में गतिमान् होने पर यह (चेतना) बहुत चंचल और क्षणिक दिखायी देती है । संसार के विविध पदार्थों में इसके चलते-फिरते रहने से ऐसा मालूम देता है कि 'सत्य-सनातन' साधारणतः परिवर्तन की स्थिति में रहता है । इस अविकारी तत्व में प्रतीत होने वाले परिवर्तन को समझाने के उद्देश्य से 'अलात' वाला उदाहरण यहाँ दिया गया है । जलती लकड़ी के टुकड़े में गति न होने के कारण उसमें किसी प्रकार का आकार दिखायी नहीं देता अर्थात उस समय एक अबोध व्यक्ति द्वारा देखे गये विविध प्राकार इस (लकड़ी) के जलने वाले सिरे में लीन हो जाते हैं । इस दृष्टान्त द्वारा श्री गौड़पाद हमें यह समझाना चाहते हैं कि हमारे विक्षिप्त मन में चेतना प्रकम्पित होती प्रतीत होती है और ऐसा लगता है कि इससे स्थूल संसार के अनेक नाम-रूप वाले पदार्थ प्रकट होते है । जब हमारा मन स्थिर हो जाता है, अर्थात् हम इसको लाँघ लेते हैं, तब आत्मा की केवल-मात्र सत्ता रह जाती है और दृष्ट संसार के सभी पदार्थ लुप्त हो जाते हैं। 'अलात' के स्थिर रहने पर उसके द्वारा बनाये गये सभी प्राकार मानो उसी जलते सिरे में समा जाते हैं । इस भाव को नीचे दिये गये मंत्र में अधिक सुन्दरता से स्पष्ट किया गया है।
अलाते स्पन्दमाने वै नाऽऽभासा अन्यतोभुवः । न ततोऽन्यत्र निस्पन्दान्नालातं प्रविशन्ति ते ॥४६॥
जब जलती लकड़ी का टुकड़ा हिलता है तो उसके द्वारा बनाये गये आकार कहीं बाहर से आकर उसमें प्रवेश नहीं करते । इसके स्थिर रहने पर वे प्राकार इसे छोड़ कर अन्यत्र नहीं चले जाते । हम यह भी नहीं कह सकते कि 'अलात' द्वारा रचित विविध
आकार इसके जलने वाले सिरे में तब प्रविष्ट हुए जब यह हिलाया नहीं जा रहा था।
यहाँ इस भाव को दिखाया जारहा है कि जलने वाली लकड़ी के धुमाये जाने पर इसमें दिखायी देने वाले अनेक आकार मिथ्या हैं। इसके घूमते रहने से उनकी हमें भ्रान्ति होती है। वे न तो कहीं बाहर से पाए
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