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( २८० ) को लाँघ लिया जाए तो जीवात्मा की सत्ता समाप्त हो जायेगी जिससे अनुभव प्राप्त करने की कोई इच्छा नहीं रहेगी; सभी अनुभव अनुभव-कर्ता में विलीन हो कर अद्वैत सत्य की अनुभूति का रूप ग्रहण कर लेते हैं और 'अनुभूत' का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
ऐसा नर-श्रेष्ठ फिर अपने आप को शरीर अथवा मन या बुद्धि मानने की भूल नहीं करेगा और न ही मृत्यु-भय, कामना, बौद्धिक प्रकम्पन, बल्कि आध्यात्मिक अशान्ति, उसे कभी चलायमान कर सकेंगे।
यहाँ जीवात्मा को व्यक्त करने के लिए बहुवचन का उपयोग किया गया है ताकि 'अहंकार' के संसार तया अद्वैत-वास्तविकता (धर्म) के भेद को स्पष्टतया जाना जा सके ।
ऋतु वक्रादिका भासमलातस्पन्दितं यथा ।
ग्रहणग्राहकाभासं विज्ञानस्पन्दितं तथा ॥४७॥ जिस प्रकार प्रज्वलित लकड़ी का टुकड़ा घुमाये जाने पर सीधा, वक्र आदि दिखायी देता है वैसे ही स्पन्दित चेतना 'द्रष्टा' तथा 'दृष्ट' आदि के विविध भागों में विभक्त होती प्रतीत होती है ।
जिस वास्तविक-तत्त्व की ऊपर व्याख्या की गयी है उसको वर्णन करन के उद्देश्य से यहाँ 'अलात्' (जल रही लकड़ी) का सुप्रसिद्ध उदाहरण दिया गया है । इस उदाहरण के कारण कई समालोचक यह कहने लगे हैं कि श्री गौड़पाद ने इसको बौद्ध ग्रन्यों से उद्धृत किया है । इस अध्याय के प्राक्कथन में हम पहले यह कह चुके हैं कि यह धारणा असंगत एवं अनुचित है । 'मैत्रेयिणी उपनिषद्' के चतुर्थ अध्याय के २४ वें मंत्र में ऋषि ने 'ब्रह्म' की व्याख्या करते हुए इस दृष्टान्त का उपयोग किया है। ऐसा कहना मान्य होगा कि श्री गौड़पाद तथा बौद्ध दार्शनिकों ने इस भाव को उक्त उपनिषद् से उद्धृत किया।
यदि यह भी मान लिया जाय कि श्री ‘गौड़पाद ने जान-बूझ कर इस दृष्टान्त का बौद्ध ग्रन्थों से उल्लेख किया तो इसे दोष-पूर्ण नहीं ठहराया जा
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