Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 294
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७६ ) खम्भों को पीछे भागते हुए देखते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि एक घूमती हुई वस्तु से देखने पर अन्य स्थिर वस्तुएं भी घूमती हुई प्रतीत होती हैं । ऐसे ही स्वयं प्रवहमान रहने वाले मन एवं बुद्धि के आधार पर संसार को देखते हुए हमें अचल एवं सनातन परमात्म-तत्त्व गतिमान् तथा क्रियमाण होता मालूम देता है । यह केवल-मात्र भ्रान्ति है । स्थूल आवरणों के कारण हमें अनेकता की भ्रान्ति होती रहती है। इसलिए श्री गौड़पाद कहते हैं कि हमें पदार्थों का जात्याभास, चलाभास आदि होता रहता है । वास्तव में इनका जन्म लेना गतिमान् तथा परिवर्तनशील होना संभव नहीं। सनातन-तत्त्व अचल एवं गुण-रहित है और यह सर्वदा शान्त तथा अद्वैत रहता है । पिछले मंत्रों में इन शब्दों पर विस्तार से विचार किया जा चुका है । एवं न जायते चित्तमेवं धर्मा प्रजाः स्मृताः । एवमेव विजानन्तो न पतन्ति विपर्यये ॥४६॥ इस तरह मन जन्म एवं विकार से रहित रहता है । सभी प्राणी वास्तव में अजात हैं। जिन व्यक्तियों ने इस रहस्य को जान लिया है वे फिर कभी वास्तविक-तत्त्व के विषय में किसी भ्रान्ति का शिकार नहीं होते। आत्म-साक्षात्कार का अर्थ जन्म-मृत्यु के चक्र से पूर्णतः मुक्त होना है । आत्मानुभव करने वाले अमर प्राणी में नश्वरता तथा ससीमता की धारणा लेशमात्र नहीं रहती । मन तथा बुद्धि द्वारा अनुभूत संसार नश्वर है और इसे केवल मन ग्रहण कर सकता है । जिस प्राणी ने शरीर-मन-बुद्धि की सीमा को लाँघ लिया है उसे विशुद्ध, सर्व-व्यापक तथा चेतन परमात्मा के अतिरिक्त और किसी की अनुभूति नहीं होती और वह अपने आप को अमर मानने लगता है। जीवात्मा ही जन्म-मरण के पाश में बंधा रह सकता है । अतृप्त वासनामों से भरा हुआ मन इनके उपभोग के लिए हमें अनेक जन्म के चक्र में फंसा कर विविध अनुभवों की प्राप्ति कराता रहता है । यदि एक बार मन For Private and Personal Use Only

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