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(२५) वास्तव में हम यह नहीं कह सकते कि संसार, जो अवास्तविक है, सत्य-सनातन से प्रकट हुआ । वैसे अवास्तविक होते हुए भी यह (संसार) वास्तविक-तत्व से इतनी समानता रखता है कि यह हमें अपने बन्धन में जकड़े रखता तथा सुख-दुःख की समान रूप से अनुभूति देता रहता है । भला यह कैसे होता है ? प्रत्येक दार्शनिक यह तथ्य समझाने में असमर्थ रहता है कि यथार्थ तत्व से अवास्तविक संसार की उत्पत्ति किस प्रकार हुई क्योंकि वास्तविक पदार्थ से अवास्तविक पदार्थ प्रकट नहीं हो सकता। फिर भी हमारे मुग्धावस्था में रहते रहने के कारण अवास्तविक संसार हमें प्रभावित करता प्रतीत होता है और साथ ही हमें अनुभव प्राप्त करने में सहायक होता है। इस भ्रान्ति से मुक्त होने का एकमात्र निदान इस आत्म-मोहन मंत्र का परित्याग करना है । जब हम इस मुग्धावस्था से पूर्णरूपेण स्वतंत्र होजाते हैं तब अध्यात्म विद्या द्वारा दिखाये गये उद्देश्य की प्राप्ति हो जाती है।
इस मंत्र में यहाँ स्पष्ट घोषणा की गयी है कि अविनाशी तत्व से नश्वरता के प्रकट होने की क्रिया-विधि को समझाना एक असम्भव बात है। श्री गौड़पाद सरीखे प्रकाण्ड विद्वान ने भी इस असमर्थता को स्वीकार कर लिया है । इसका यह कारण नहीं कि "इस महानाचार्य में कोई बौद्धिक निष्क्रियता (न्यूनता) का अंश पाया जाता था बल्कि कारण यह है कि इसे सिद्ध करने में तर्क एक असहाय पंग बन कर रह जाता है।" ऋषि कहते हैं कि कारणवाद मिथ्या होने के कारण इस विषय-विशेष में किसी तरह सहायक नहीं हो सकता । सनातन एवं अविनाशी तत्व के नाशमान दिखायी देने का कारण जाने बिना इसको वैज्ञानिक ढंग से समझाना असंभव है।
विज्ञान का कार्य-क्षेत्र कारण-कार्य तक ही सीमित रहता है । जब मन तथा बुद्धि तर्क की चरम-सीमा तक जा पहुँचते हैं। तब कारण-कार्य से सम्बन्धित क्षेत्र इन से बहुत नीचे रह जाते हैं । एक बार मिथ्यात्व को लांघ लेने पर मन उस वास्तविक जगत् में जा पहुंचता है जहाँ कारण-कार्य दृष्टि-गोचर नहीं होते क्योंकि विशुद्ध चेतना से कभी किसी की उत्पत्ति नहीं होती । जहाँ
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