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(२६) विचार में विकसित बुद्धि द्वारा यही सिद्धान्त मान्य हो सकता है । यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से ऋषि हमारे उस अन्ध विकास की ओर संकेत करते हैं जो सामान्यतः कारणवाद में पाया जाता है।
जीवन पर घटाने से इस मंत्र को केवलमात्र एक ऐसा सिद्धान्त नहीं मान लेना चाहिए जो अधिक विकसित होने के कारण केवल अव्यावहारिक एवं हवाई किले बनाने वाले व्यक्तियों के कल्पना-जगत को ही सन्तुष्ट रख सकता है । वास्तव में हम इस सिद्धान्त का अपने जीवन के सभी व्यापारों में सदुपयोग कर सकते हैं । यदि हम उपरोक्त बौद्धिक प्रमाणों से यह परिणाम निकाल सकें कि अवास्ताविक होने के कारण स्थूल पदार्थ हमारे मन की रचना नहीं कर सकते तो हमें स्पष्ट रूप से विदित हो जायेगा कि जीवित व्यक्ति बाह्य परिस्थितियों के शिकार नहीं हो सकते । हमारी उत्पत्ति संसार से नहीं होती और न ही हम इस स्वप्नमय संसार की रचना करते हैं । परिस्थितियाँ हमारा कुछ भी बना अथवा बिगाड़ नहीं सकतीं । इन परिस्थितियों पर प्रभुता रखने के कारण हम प्रतिदिन अपने भाग्य का निर्माण करते हैं ।
इस तरह साधक के लिए वेदान्त न केवल मार्ग तथा लक्ष्य की व्यवस्था करता है बल्कि यह उस (साधक) को इस तत्व से भी अवगत कराता है कि मनुष्य परिस्थितियों से पूर्णतः अछूता रहता है । इससे वह आस्था एवं दृढ़ता से अपना जीवन व्यतीत कर सकता है । मनुष्य प्रकृति का दास नहीं है बल्कि यह (प्रकृति) उस (मनुष्य) के हाथ में एक कठपुतली है और उसकी सुविधा तथा मनोरंजन के लिए तत्पर रहती है। हमारा आत्म-पतन करने वाली भ्रान्ति ने हमें जिस संघर्ष तथा झंझट में डाला हुआ है उसके कारण हम इस तत्व को स्मरण नहीं रख पाते । अतः बुद्धिमान इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं क्योंकि तर्क एवं युक्ति द्वारा इस तत्व को पूर्ण रूप से सिद्ध किया गया है ।
यावद्ध तुफलावेशस्तावद्धेतु फलोद्भवः ।
क्षीणे हेतुफलावेशे नास्ति हेतुफलोद्भवः ॥५५॥ जब तक कोई व्यक्ति कारणवाद में विश्वास रखता है तब
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