Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

View full book text
Previous | Next

Page 304
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८६ ) तक उसे यह (कारणवाद) क्रियमाण होता दिखायी देता है किन्तु जब उसके हृदय से यह भावना निकल जाती है तब कार्या-कारण दोनों लुप्त हो जाते हैं। यदि बुद्धिमानों द्वारा ऊपर बताया गया तर्क सिद्ध परिणाम निकाला गया है तो प्रश्न उठता है कि कारणवाद से चिमटे रहने वाले व्यक्ति की क्या दशा होती है। इस मंत्र में इसका उत्तर दिया जा रहा है। जब तक कोई व्यक्ति कारणवाद में अटूट विश्वास रखता तथा उसे व्यवहार म लाता है तब तक वह उसके लिए विधि पूर्वक क्रियमाण होता है। जिस समय तक मनुष्य यह सोचता रहता है कि ''मैं अभिकर्ता हूँ; गुणअवगुण वाले ये जीवन-व्यापार मेरे अपने हैं और यथा-समय नया जन्म लेकर मैं इन कृत्यों के फल का उपभोग करूगा" तब तक उसे इन कम्र्मों का फल भोगना पड़ता है और इन (कम्मों) के अनुसार उसे सुख-दुःख की प्राप्ति होती रहती है। हम जैसी भावना रखते हैं वैसे बन जाते हैं। जब विवेक द्वारा उसके हृदय में यह भ्रान्ति-पूर्ण भावना नहीं रहती तब वह कारणवाद के प्रभाव से मुक्त हो जाता है । इस प्रसंग में कम से कम भारतवर्ष में बहुत से व्यक्ति शकुन-अपशकुन के अनुकूल-प्रतिकूल फल का उपयोग करते देखे जाते हैं जब कि अन्य देशों वाले समान परिस्थितियों में जीवन व्यतीत करते रहने पर भी सुख-दुःख का मनुभव करते दिखायी नहीं देते । यावद्ध तुफलावेशः संसारस्तावदायतः । क्षीणे हेतुफलावेशे संसारं न प्रपद्यते ॥५६॥ जब तक (मनुष्य की) कारण-कार्य में श्रद्धा रहती है तब तक (उसका) जन्म-मरण का चक्र निरन्तर चलता रहेगा। जिस क्षण विवेक उसकी इस धारणा को नष्ट कर देता है उसी क्षण जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है । For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359