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(२८६) अद्वितीय सत्य का साम्राज्य है वहां किसी पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
यहाँ हमें इस बात को ध्यान-पूर्वक जान लेना चाहिए कि इन दोनों मंत्रों में श्री गौड़पाद ने हमें यह संकेत दिया है कि हमारी जाग्रत एवं स्वप्न अवस्था में सक्रिय चेतना हमें उपलब्ध होती रहती है। जब ऋषि निष्क्रिय चेतना का उल्लेख करते हैं तो उनका यह अभिप्राय है कि प्रगाढ़ निद्रा की अवस्था में वह चेतना क्रियमाण नहीं होती जिसके द्वारा हम जाग्रत-संसार तथा स्वप्न-जगत की अनुभूति करते रहते हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि घोर निद्रा की अवस्था में स्वप्न एवं जाग्रत अवस्था विद्यमान नहीं रहती और न ही यह कहा जा सकता है कि ये दोनों अवस्थाएँ सोने वाले व्यक्ति में प्रविष्ट हो जाती हैं । इससे न तो वे निकलती हैं और न ही वे (अवस्थाएँ ) इसमें लीन हो जाती हैं क्योंकि चेतना की ये तीन अवस्थाएँ वे काल्पनिक कथानक हैं जो बुद्धि रूपि वृद्धा द्वारा मन रूपी शिशु को सुनाये जाते हैं।
द्रव्यं द्रव्यस्य हेतुः स्यादन्यदन्यस्य चैव हि।
द्रव्यत्वमन्यभावो वा धर्माणां नोपपद्यते ॥५३॥ एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य की उत्पत्ति हो सकती है । द्रव्य के अतिरिक्त किसी और वस्तु से द्रव्य से इतर पदार्थ उत्पन्न हो सकता है; किन्तु जीवात्मा न तो द्रव्य हो सकते हैं और न ही द्रव्य से
इतर।
तर्क-शक्ति से मुग्ध मन वाले अपने शिष्यों को पराजित कर चुकने पर भी श्री गौड़पाद अभी अपने विचार की पुष्टि करने में लगे हुये हैं। कारणवाद में रत्ती भर आस्था भी शेष न रहने देने के उद्देश्य से ऋषि अपने शिष्यों को एक युक्ति के बाद दूसरी युक्ति दे रहे हैं । इस परिवर्तन-शील स्थूल संसार से हम एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य की उत्पत्ति होते देखते हैं। मानसिक एवं मनुष्यता के पारस्परिक जगत में हम द्रव्य से इतर पदार्थों से सजातीय पदार्थों को प्रकट होते हुए देखते हैं।
इसी में विशेषताओं अथवा गुणों को व्यक्त करने के लिए 'द्रव्य से
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