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( २७६ ) अव्यक्त मानने से भयभीत रहते हैं कि उन्हें स्थूल संसार के विविध पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं वे 'अजाति' को स्वीकार नहीं करते; इसलिए 'कारणवाद' में विश्वास रखने से उन पर किसी अनिष्ट फल का अधिक प्रभाव नहीं पड़ता और यदि होता है तो बहुत कम । ___ इस मंत्र में श्री गौड़पाद उन नवागन्तुक (वेदान्त) साधकों का पक्ष ले रहे हैं जिन्हें अपनी साधना के प्रारम्भ में कारणवाद में आस्था रखनी होती है । यह तथ्य सर्वथा मान्य है कि परमात्म-तत्त्व कारण-रहित है और इससे किसी की उत्पत्ति नहीं हुई । विविधता-पूर्ण यह संसार मिथ्या है । हमारे मन और बुद्धि भी आत्मा में आरोप हैं । जब तक द्रष्टा की सत्ता बनी रहती है तब तक दृष्ट-पदार्थ भी रहता है । जिस समय शरीर-मन-बुद्धि के उपकरण का अस्तित्व नहीं रहता अर्थात् जब हम इनको पूर्ण रूप से समर्पण कर देते हैं तब आत्मा अपने आप में रमण करने लगती है और इसको अपने प्राकृतिक गुण (सम-रूप सत्य) का ही अनुभव होने लगता है ।
इस पर भी यदि गुरु, शिष्य, धर्म-ग्रन्थ या ॐ आदि की अनेकता अनुभव होती रहे तो इसमें किसी की भूल नहीं समझनी चाहिए । प्रतीत तत्त्व तक उड़ान भरन से पहल इन उपकरणों में समन्वय लाना अनिवार्य है । वेदान्त द्वारा अपनाये गये प्रात्म-परिपूर्णता की अन्तिम उड़ान के लिए तैयार रहने वाले साधक को कारणवाद में अस्थायी विश्वास रखने का परामर्श दिया जाता है।
श्री गौड़पाद इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि प्रारम्भ में 'सद्गुरु' में आस्था रखनी आवश्यक है और इससे साधक को कोई हानि नहीं होती; यदि हम परिपूर्ण मात्मा के स्तर से देखें तो 'गुरु' भी स्वप्नवत् प्रतीत होता है । जिस तरह स्वप्न में दिखायी देने वाला सिंह स्वप्न-द्रष्टा को भयभीत कर के उसकी निद्रा भंग कर देता है वैसे ही स्वप्न-रूपी वेदान्त-केसरी अपने शिष्य के अनेकतामय स्वप्न को भंग कर के उसे वास्तविक-तत्व की सम-रूप अनुभूति करा देता है।
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