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( २६४ ) प्रादावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा । वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः ॥३१॥
आदि तथा अन्त से रहित वस्तु का मध्य-स्थिति (वर्तमान) में कोई अस्तित्व नहीं रह सकता । सभी दृष्ट-पदार्थ मिथ्या हैं तो भी इन्हें वास्तविक जाना जाता है।
सप्रयोजनता तेषां स्वप्नेविप्रतिपद्यते । तस्मादाद्यन्तवत्त्वेन मिथ्येव खुल ते स्मृताः ॥३२॥
जाग्रतावस्था में देखे जाने वाले पदार्थ कोई न कोई प्रयोजन रखते हैं-यह बात हमारी स्वप्नावस्था में चरितार्थ नहीं होती। इसलिए आदि तथा अन्त वाले इन पदार्थों को विवेक-पूर्ण ज्ञानी निश्चित रूप से मिथ्या मानते हैं।
'माया' की व्याख्या करने वाले दूसरे अध्याय के छठे और सातवें श्लोकों में उपरोक्त दो श्लोकों की व्याख्या की जा चुकी है । इनकी इस प्रसंग में पुनरावृत्ति की गयी है जिससे हम समझ सकें कि अनेकता-पूर्ण दृष्ट संसार वास्तविक नहीं, अपितु मिथ्या है । हर विचार-हीन व्यक्ति दृष्ट-वस्तु को यथार्थ मानने लगता है । इसके विपरीत एक विचारवान् पुरुष किसी पदार्थ के प्रत्यक्ष होने पर भी उसकी वास्तविकता के विषय में सोचने लगता है । उसके मन में भावुकता अथवा मनोद्वेग के लिए कोई स्थान नहीं रहता । वह तो सक्रिय रूप से 'सत्य' की खोज में प्रयत्नशील रहता है और इस प्रयास में जब उसे कोई पदार्थ दिखायी देता है तो वह तुरन्त रुक नहीं जाता वरन् उस की वास्तविकता को जानने की उत्कण्ठा रखता है । ___कई बार हम ऐसी वस्तुओं का अनुभव करते हैं जो वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं रखतीं । इस सम्बन्ध में अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, जैसे मृग-तृष्णा जल, रज्जु में सर्प, खम्भे में भूत आदि । इन वस्तुओं की अनुभूति होती है। इसी कारण यह मान लेना बुद्धिमानी नहीं कि इनका अस्तित्व बना हुआ है । स्वप्न में राज्य-तिलक लेने के बाद यदि मैं जागने पर भी
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