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( २६२ ) चुका है कि 'ब्रह्म' एकमात्र और अजात है । इस मंत्र में श्री गौड़पाद के इस सिद्धान्त को संक्षेप में बताया गया है कि कारण-नियम एक निरर्थक सिद्धान्त है जो हमारे ज्ञान-रहित मन के कारण प्रतीत होता है । अजात मन, जो वस्तुतः ब्रह्म है, इन व्यक्तियों द्वारा उत्पन्न होने वाला समझा जाता है । इस लिए ये कहते हैं कि अजात (मन) ने जन्म लिया है। ___इससे पहले हम बता चुके हैं कि कोई वस्तु अपनी प्रकृति का त्याग कर के निज सत्ता को बनाये नहीं रख सकती । गर्म बर्फ ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी और न ही ठंडी अग्नि उपलब्ध होने की संभावना हो सकती है । ऐसे ही कोई प्रखर-बुद्धि एक क्षण के लिए भी यह मानने के लिए तैयार न होगा कि 'अजात' वस्तु से किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति हो सकती है । यह बात पूर्णरूप से हास्यास्पद है।
अनादेरन्तवत्वं च संसारस्य न सेत्स्यति ।
अनन्तता चाऽदिमतो मोक्षस्य न भविष्यति ॥३०॥
(जैसा विरोधी आग्रह करते हैं) यदि संसार को अनादि मान लिया जाय तो यह अन्त वाला नहीं हो सकता अर्थात् आदिरहित संसार अन्त-रहित भी होगा । मोक्ष 'आदिवान्' होने के साथ सनातन नहीं रह सकता ।
प्रात्मा को मुक्त एवं बद्ध मानने वाले व्यक्तियों की युक्ति के दोषों को ऋषि यहाँ स्पष्टतः प्रकट कर रहे हैं । यदि यह संसार, जिसे आत्मा की बन्धन-स्थिति कहा जाता है, अनादि मान लिया जाए तो तर्क-दृष्टि से इसके अन्त को सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि एक अनादि वस्तु का अनन्त होना अनिवार्य है । यदि प्रात्म-ज्ञान अथवा मुक्ति को आदिवान् मान लिया जाए तो हमें इसको नश्वर भी मानना पड़ेगा । इस ररह एक बार मुक्त होने वाला व्यक्ति निश्चय रूप से जन्म-मरण की भंवर में फंस जायेगा जिससे दर्शन-शास्त्र द्वारा इंगित ध्येय ही यथार्थ रह पायेगा। संसार को अनादि मान लेने पर हमें इसे शाश्वत मानना होगा । यदि हम सब को जन्म-मरण के
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