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( २६० ) निमित्त न सदा चित्त संस्पृश्यत्यध्वसु त्रिषु ।
अनिमित्तो विपर्यासः कथं तस्य भविष्यति ॥२७॥ तीन काल में मन का कोई कारण-सम्बन्ध नहीं रहता; फिर. मन में भ्रांति किस प्रकार हो सकती है जब इस (मन) के विक्षिप्त होने का कोई कारण ही नहीं होता ?
श्री शंकराचार्य के विचार में एक व्यक्ति यह शंका करता है--"असत् पदार्थों को धारण करने वाला पात्र मन ही दिखायी देता है । इसका यह अर्थ हुआ कि हमारा ज्ञान 'मिथ्या' है । यदि इस बात को माना जाय तो 'यथार्थ' ज्ञान की सत्ता कहीं न कहीं अवश्य होनी चाहिये क्योंकि 'मिथ्या' ज्ञान के साथ 'यथार्थ' ज्ञान का होना स्वाभाविक है।" तार्किक इस सम्बन्ध में ऊपर वाली युक्ति देते हैं।
'नैयायिक' कहते हैं कि हमारे मन में सर्प का मिथ्याभास तभी होगा जब हमने इससे पूर्व सर्प की अनुभूति की हो अर्थात् साँप को देखा हो । इस धारणा के अनुसार भ्रांति का होना तभी संभव होगा जब इससे सम्बन्ध रखने वाले पदार्थों का मिथ्या ज्ञान हम में पहले से ही बना हो। इस तरह वे कहते हैं कि यदि मन बाह्य-संसार की रचना करता है तो इस (संसार) के पदार्थों की वास्तविक सत्ता तो पहले से ही कहीं न कहीं बनी होगी क्योंकि इन्हीं संस्कारों के परिणाम-स्वरूप हम स्थूल पदार्थों वाले संसार की सृष्टि करते हैं। संक्षेप में, हम यह जानते है, नैयायिक किसी ऐसे संसार की वास्तविकता में विश्वास रखते हैं जो मन में मिथ्या भावनाएँ जाग्रत करके हमें अवास्तविक बाह्य-संसार की प्रतीति कराता रहता है । इसलिए सत्संग में एक नैयायिक खड़ा होकर यह शंका करने लगता है। प्रस्तुत मन्त्र में श्री गौड़पाद इस शंका का समाधान करते हैं । ऋषि कहते हैं कि मन तीनकाल में किसी वस्तु से कारण-सम्बन्ध नहीं रखता जिससे न तो किसी 'वास्तविक' संसार की सत्ता रहती है और न ही, यदि हम संसार का अस्तित्व मान भी लें, मन में वासनाएँ संचित होती रहती हैं।
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