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( २६८ ) कर्तव्य निबाहना प्रारम्भ कर दू तो मेरे लिये बन्दी-गृह अथवा पागलखाना ही उपयुक्त स्थान समझा जायेगा।
यहाँ भगवान् गौड़पाद उन व्यक्तियों की धारणा की निष्फलता सिद्ध करना चाहते हैं जो स्वप्न को वास्तविक मानते हैं । इससे पहले हमें यह बताया जा चुका है कि जाग्रतावस्था उतनी ही वास्तविक है जितनी स्वप्न-सृष्टि ।
स्वप्ने चावस्तु कः कायः पृथगन्यस्य. दर्शनात् । यथा कायस्तथा सर्व चित्तदृश्यमवस्तुकम् ॥३६॥
स्वप्न देखने में व्यस्त शरीर भी अवास्तविक होना चाहिए क्योंकि स्वप्न-द्रष्टा का एक शरीर तो शय्या को सुशोभित करता है जबकि उसका स्वप्न-शरीर पृथक् रूप से गतिमान होता है । यदि स्वप्न-शरीर वास्तविक नहीं तो स्वप्न के सभी पदार्थ अवास्तविक होने चाहिए।
स्वप्न में मुझे नदी में गिरने तथा उसमें डूबने का अनुभव हो सकता है किन्तु जाग जाने पर मेरे शरीर का कोई भाग (उस नदी के जल से। गीला नहीं दिखायी देता। स्वप्न में वध किये जाने पर भी मुझे जाग्रतावस्था में अपने शरीर पर एक भी खरौंच दिखायी नहीं देती। इस तरह स्वप्नद्रष्टा का शरीर उसके स्वप्न-शरीर से सर्वथा भिन्न दिखायी देता है । निद्रा खुलने पर ही वह अपने स्वप्न-शरीर के मिथ्यात्व को अनुभव करता है । ऐसे ही स्वप्न में दिखायी देने वाली सभी वस्तुएँ अवास्तविक एवं भ्रान्तिपूर्ण होती हैं। दूसरे और तीसरे अध्याय में हमने जो कुछ पढ़ा है उस प्रसंग में श्री गौड़पाद ने हमें पूर्ण रूप से समझाने के लिए यह व्याख्या दी है । इसका सार यह है कि जाग्रत-शरीर और इसकी अनुभूति में उतनी ही यथार्थता है जितनी स्वप्न-शरीर तथा उसके अनुभव में ; क्योंकि ये दोनों भ्रान्ति-पूर्ण हैं ।
ग्रहाणाजागरितवत्तद्ध तुः स्वप्न इष्यते । . तद्ध तत्त्वात्तु तस्यैव सजागरितमिष्यते ॥३७॥
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