________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( २६१ ) तस्मान्न जायते चित्तं चित्त दृश्यं न जायते । तस्य पश्यन्ति ये जाति रवे वै पश्यन्ति ते पदम् ॥२८॥
मन अथवा इसके द्वारा देखे जाने वाले पदार्थों की कभी उत्पत्ति ही नहीं हुई । जो व्यक्ति इन (दोनों) की सत्ता में विश्वास रखते हैं वे आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के पद-चिह्न अवश्य देखते होंगे।
श्री गौड़पाद पूर्ववत् तीव्र आलोचना करते हैं। ऋषि ने दृढ़ता से इन विचारों को प्रकट किया है ताकि उनके सम्मुख बैठे विद्यार्थी उक्त मिथ्या धारणा को अपने मन से पूरी तरह निकाल दें । भगवान् गौड़पाद द्वैतवादियों के सिद्धान्तों की निराधारता को सिद्ध करने के लिए इतने उत्सुक नहीं जितने इन विद्यार्थियों की शंकाओं का निवारण करने के लिए ताकि उन (विद्यार्थियों) में अनेकता से सम्बन्धित रत्ती भर सन्देह न रहने पाए और वे परिपूर्णता प्राप्त कर सकें।
यह मंत्र उन महत्त्व-पूर्ण मंत्रों में से एक है जिसमें यह बताया जा रहा है कि दृष्ट-संसार तथा विचार-जगत् दोनों अवास्तविक हैं । इन दोनों धारणाओं को निराधार सिद्ध करने के बाद ऋषि कहते हैं कि यदि (उनके) विद्यार्थी फिर भी इस भ्रान्ति के शिकार बने रहते हैं तो वे एक अनहोनी बात कर रहे हैं, जैसे आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के पद-चिह्न ढूढने के लिए प्रयत्नशील रहना।
प्रजातं जायते यस्मात् प्रजातिः प्रकृतिस्ततः । प्रकृतेरन्यथाभावो न कथंचिद्भविष्यति ॥२६॥
वाद-विवाद करने वालों के विचार में अजात 'तत्त्व' का जन्म होता है जब कि (वास्तव में) इसकी प्रकृति इसके विपरीत (अर्थात् जन्म-रहित) है । किसी वस्तु का अपनी प्रकृति के विरुद्ध होना असंभव है ।
इससे पहले जो जो युक्तियां दी जा चुकी हैं उनके द्वारा यह सिख हो
For Private and Personal Use Only