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( २५६ ) को रख रहे हैं। यथार्थवादी, जैसा बताया जा चुका है, संसार को वास्तविक मानते हैं क्योंकि (उनके विचार में) हम वस्तुओं का अनुभव करते हैं और साथ ही हमें दुःख की अनुभूति होती रहती है । विज्ञान-वादी इसके विपरीत यह मानते हैं कि बाह्य-संसार के पदार्थों में कोई वास्तविकता नहीं जिससे इनका मन में आरोप नहीं हो सकता और (साथ ही) हमारे मन की वासनाएँ मन से भिन्न नहीं बल्कि 'मन' का ही स्वरूप हैं। __ स्थूल संसार की व्याख्या करने के दो तरीके हैं—(क) बाह्य-पदार्थों की हम पर छाप पड़ती है जिससे हमारे मन में वासनाएँ बन जाती हैं जो मिल कर 'मन' की रचना करती हैं और (ख) अपनी वासनाओं की सहायता से मन बाहर निकल कर भनेकता-पूर्ण संसार का आभास कराता है ।
(क) इस सिद्धान्त के अनुसार मन की रचना पदार्थों के द्वारा होती है। किन्तु यहाँ एक दार्शनिक स्थूल पदार्थों को वास्तविक मानता है । विज्ञानवादी इस विचार को काट देते हैं क्योंकि उनके मतानुसार बाह्य-संसार के पदार्थों की सत्ता ही नहीं है जिससे इनके द्वारा मन की रचना होना एक असंभव बात है। हम मृग-तृष्णा वाले जल को, जिसका अस्तित्व ही नहीं है, नाव द्वारा लाँध नहीं सकते। यदि स्थूल पदार्थो की सत्ता ही नहीं तो वे मन की किस तरह रचना कर सकते हैं ?
(ख) इस विचार का भी विज्ञानवादियों द्वारा खण्डन किया जाता है। वे कहते हैं कि मन और इसकी वासनाएँ अभिन्न हैं और वासनाओं के बिना मन का अस्तित्व ही नहीं रहता । जब हमारी वासनाएं उच्छृखल रूप से प्रकट होती हैं तब हमारा मन उच्छखल हो जाता है । शान्त एवं कोमल विचार होने पर हमारा मन शान्त एवं कोमल हो जाता है । इस तरह हमारे विचार हमारे मन से अलग नहीं होते । यदि पदार्थमय संसार की सत्ता को हम मान भी लें तो यह कहना पड़ेगा कि इस (संसार) की स्थिति हमारे मन में ही रहती है । इस प्रकार ये (विज्ञानवादी) इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 'मन' ही दृष्ट-संसार है।।
यथार्थवादियों के विचारों का विरोध करते हुये विज्ञानवादी कहते हैं कि
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