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इसका मुख्य कारण यह है कि दूसरे सब मार्गों में बहुत बाह्याडम्बर पाया जाता है । भक्तिमार्ग में प्राराधना, मंत्रोच्चारण और भगवद्-कीर्तन का प्रयोग किया जाता है जिससे नास्तिक पड़ोसी अशान्त हो सकते हैं । 'हठ-योग' में मनुष्य को प्राचरण के बहुत से बाह्य नियमों का पालन करना होता है और यह प्रयास प्राय: 'तपश्चर्या' के समान कठिन हो जाता है । जो तपस्या के मार्ग को समझ नहीं पाते उनके लिए एक तपस्वी का जीवन प्रति दुःखप्रद होता है । 'कर्म-योग' में 'राग' और 'द्वेष' का किसी न किसी मात्रा में होना अनिवार्य है । इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी मार्गों में कुछ न कुछ शोक अथवा दुःख अवश्य पाया जाता है । 'अस्पर्श-योग' में, जिसके द्वारा हृदय की गुह्य गुफा में आत्मा से साक्षात्कार किया जाता है, मनुष्य के भीतर विकास लाया जाता है जिससे यह मार्ग 'साधक' के लिए हितकारी होने के साथ दूसरों के लिए क्लेशकारी नहीं होता ।
श्रात्मानुभव के इस मार्ग पर चलन स पूर्वं हृदय को अभ्यास एवं नियम से विकसित करने का क्रम बताया जाता है और साथ ही साधक को नकारात्मकता के दुर्गम जन को साफ करने तथा हृदय में सद्गुणों का संचार करने का परामर्श दिया जाता है | आत्म - विकास की इस सुसंस्कृत एवं सुव्यवस्थित विधि में कोई संघर्ष नहीं पाया जाता और न हो इसका कोई विरोध होता है ।
दूसरे मार्गों में विवाद की बहुत अधिक संभावना होती है और हरं गुरु अपनी अलग विधि बताता है जिससे भक्त समुदाय एक मार्ग पर चलते हुए दूसरे मार्गों से प्रायः अनभिश रहते हैं । संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि किसी 'योग' के अनुयायी प्राय: एक ही मार्ग का अनुसरण नहीं करते | इसके विपरीत 'वेदान्त-साधना' में एक ही राज मार्ग है जो सबसे छोटा होने के साथ साथ अभीष्ट स्थान तक शीघ्र पहुँचाने वाला है। इस मार्ग पर बढ़ना सहृदयता, श्रात्म-साधन मौर विवेक बुद्धि पर निर्भर है । जिस अंश में ये गुण बढ़ेंगे उसी अनुपात से साधक उन्नति करेगा ।
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