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( १४० ) जिसका अस्तित्व नहीं वह किस तरह विद्यमान रहता है ! यह कहना कि "मैंने इंद्र-धनुष खरीदा" एक ऐसी बात होगी जो सत्य से कोसों दूर है । “वह मुझे आकाश-पुष्प देगा"-इस वाक्य में विश्वास रखना निराशा का सहारा लेना होगा क्योंकि जो वस्तु है ही नहीं उसे किस तरह प्राप्त किया जा सकता है ? इस तरह सांख्य और वैशेषिक दोनों की दृष्टि से संसार की अनकता से सम्बन्ध रखने वाली ब्याख्या अनुपयुक्त हुई । इसलिए श्री गोड़पाद कहते हैं कि कारण के सिद्धान्त की व्याख्या करने में असफल रहती हुई ये दोनों विचार-धाराएँ वेदान्त के इस दृष्टिकोण को सिद्ध करती हैं कि किसी वस्तु की सृष्टि नहीं हुई है और सब भान्ति-पूर्ण बातों में कारणसिद्धान्त का निकृष्ट स्थान है ।
ख्याप्यमानामजाति तैरनुमोदामहे वयम् । विवदामो न तैः सार्धमविवादं निबोधत ॥५॥
इन द्वैतवादियों द्वारा बताये गये अजातवाद का हम अनुमोदन करते हैं । हमारा उनसे कोई झगड़ा नहीं है । अब हमसे सुनिए कि वह कौन सा सनातन-तत्व है जो निर्विरोध एवं निर्विवाद है।
यहाँ श्री गौड़पाद सूक्ष्म भाव से द्वैतवादियों (जो सामान्यतः तर्क-वितक में प्रवीण होते हैं) और उनके अन्ध-विश्वास की हंसी उड़ाते हैं । ऋषि कहते हैं कि वे अपने दार्शनिक विचारों द्वारा 'अजातवाद' को सिद्ध करते हैं। हमारा उनसे कोई मतभेद नहीं है और हम उनके शुभ भावों एवं विचारों को स्वीकार करते हैं। हम प्रब अपने इस सिद्धान्त को स्पष्ट करने का प्रयास करेगे कि कारण-सिद्धान्त एक भ्रान्ति-पूर्ण विचार है जो द्वैतवादियों के दार्शनिक विचारों की दृष्टि में भी मान्य नहीं।
वेदान्त और इसके सिद्धान्त की व्याख्या करने का प्रयत्न करते हुए श्री गौड़पाद कहते हैं कि अनेकतामय संसार केवल मानसिक भ्रान्ति है । अब आचार्य पूर्णतः कटिबद्ध होकर साधक के मार्ग में आने वाले उन सब काँटों को दूर करने पर उद्यत होते हैं ताकि वह अनन्त-शक्ति के शान्तिपूर्ण क्षेत्र में प्रवेश पा सके।
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