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( १५५ ) हतुन जायतेऽनादैः फलं चापि स्वभावतः ।
आदिन विद्यते यस्य तस्यह्यादिन विद्यते ॥२३॥ अनादि फल (कार्य) से कारण की उत्पत्ति नहीं हो सकती और न ही 'कार्य' स्वतः उत्पन्न होता है। जिसका आदि नहीं वह निश्चय-पूर्वक जन्म-रहित होगा ।
यहाँ दो अन्य सम्भावनापों पर विचार किया जा रहा है जिनकी ओर विरोधी हमारा ध्यान आकर्षित कर सकते हैं । वे इस प्रकार कही गयी है-- अनादि कारण से फल (कार्य) की प्राप्ति होना और 'कार्य' का स्वतः उत्पन्न होना । यहाँ इन दोनों बातों का निषेध किया जा रहा है ।।
यदि कारण' अनादि है तो इसका जन्म-रहित होना अनिवार्य है । जिसका आदि नहीं वह अन्तहीन अवश्यमेव होगा अर्थात् वह (पदार्थ) सनातन होगा । 'सनातन' शब्द का अर्थ विकार-रहित होता है। कार्य की उत्पत्ति का अभिप्राय परिवर्तन (विकार) होना है । इस तरह यह युक्ति देना कि अनादि कारण से फल की प्राप्ति होती है इस उक्ति के समान है कि बर्फ से अग्नि की उत्पत्ति होती है । इस मन्त्र में कारण-कार्य सिद्धान्त पर वाद-विवाद समाप्त किया जाता है।
सभी शास्त्रों में कहा गया है कि मन और बुद्धि को लांघना एकमात्र उपाय है जिससे हमें निदिष्ट अनुभूति हो सकती है । मन को जीतने के अनेक उपाय हैं । काल-प्रन्तर-कारण त्रिपद के गतिमान होने से ही मन का अस्तित्व रह सकता है । वास्तव में ये तीनों कोई पृयकता नहीं रखते बल्कि साधक द्वारा व्यावहारिक रूप में लाने के लिए इन्हें एक ही तत्व माना गया है । 'अन्तर' का अस्तित्व काल और कारण के बिना असम्भव है । ऐसे ही इनमें कोई एक दूसरे दो के बिना नहीं ठहर सकता। .
इस प्रकार महान वेदान्त-ग्रन्थ में ऋषि विद्यार्थियों के सामने 'कारण' के मिथ्यात्व का स्पष्टीकरण कर रहे हैं जिसे हम अपनी बेसमझी में पूर्ण पौर सनातन मान बैठे हैं । यहाँ श्री गौड़पाद 'कारण' के सम्बन्ध में हमारी
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