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यह युक्ति देने लगें कि संसार में पिता से पुत्र का जन्म और मिट्टी से पात्र की उत्पत्ति होते तो हम देखते ही हैं। इसे जन्म तथा उत्पत्ति कहना अनुचित् है और 'श्रुति' भी इस विचार की पुष्टि करती है-वाचरम्बनम् विकारो नामादयम्, मृत्य केत्येव सत्यम्" अर्थात् सब प्रभाव (कार्य) केवल नाम और शब्दालंकार हैं । यदि कोई वस्तु 'सत्' ही है तो उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । क्या मैं अपने आपको जन्म दे सकता हूँ? मैं जब पहले से इस स्थान पर बैठा हूँ तो मेरा जन्म कैसे होगा ?
यदि यह कहा जाय कि 'असत्' की उत्पत्ति होती है तो इस उक्ति में विरोध पाया जाता है । क्या मैं आकाश-पुष्प तोड़ कर मार को दे सकता हूँ ? मेरे शिर पर सींग नहीं उग सकते और न ही किसी पुरुष के पूंछ हो सकती है। जिसकी सत्ता ही नहीं है उसे किसी समय किसी ज्ञात विधि से उत्पन्न नहीं किया जा सकता।
इस तर्क-वितर्क में यह कहा जा सकता है कि 'सत्' और 'असत्' वस्तु की उत्पत्ति हो सकती है । ऐसा होना भी असंभव है क्योंकि एक ही वस्तु में दो परस्पर-विरोधी बातों का समावेश नहीं किया जा सकता । संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो सत्ता रखते हुए असत् हो । बौद्धों में क्षणिक-विज्ञान-वाद' विचार रखने वाले यह युक्ति देते हुए कहते हैं कि बाह्य-पदार्थ हमारे मानसिक विचारों का प्रतिबिम्ब-मात्र हैं और प्रतिक्षण हमारे विचार बदलते रहते हैं । एक विचार हमारे मन में आता और समाप्त हो जाता है जिससे यह समझना चाहिए कि यह 'सत्' और 'असत्' स्थिति में रहता है। यह युक्ति स्वीकार्य नहीं है क्योंकि यह कहना कि एक वस्तु 'यह है' शब्दों द्वारा दिखाये जाने के तुरन्त बाद नहीं रहती एक अमान्य बात है। यदि ऐसी सम्भावना होती तो हम किसी वस्तु, घटना आदि को स्मरण न रख सकते ।
'कारिका' में उन छः वैकल्पिक संभावनाओं की निरर्थकता प्रकट की गयी है जिनमें किसी वस्तु की उत्पत्ति समझायो जा सकती है। इस तरह प्रजात-वाद के सिद्वान्त की अन्ततोगत्वा पुष्टि होती है ।
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