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उठ कर श्री गौड़पाद के इस विचार का विरोध करने लगते हैं। वे कहते हैं कि कार्य और कारण में वही सम्बन्ध है जो बीज तथा अंकुर में है ।
इस मन्त्र में टीकाकार इस तर्क पर अपने विचार प्रकट करते हैं। ऋषि कहते हैं कि अभी तो बीज और अंकुर के बीच कारण-सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सका । बीज को अनकल अवस्था में बोने से पहले अंकुर की सत्ता बनी रहती है जिससे बीज को 'कार्य', तथा अंकुर को 'कारण' कहा जा सकता है । जब बीज में से अंकुर निकलता है तब बीज कारण बन जाता है और अंकुर कार्य । ___इस तरह कभी बीज कारण बनता है और कभी यह किसी और कारण का कार्य कहा जाता है । वही कारण एक समय कार्य बन जाता है और वही कार्य फिर कारण-रूप में दृष्टिगोचर होता है। यह क्रिया समय तथा स्थान के बदलते रहने से घटित होती रहती है। इस प्रकार हम यह नहीं कह सकते कि 'बीज' 'अंकुर' का अथवा 'अंकुर' 'बीज' का कारण है । किसी समय जो 'कारण' होता है वह दूसरे समय 'कार्य' बन जाता है । ___इसलिए 'कारिका' में श्री गौड़पाद ने आग्रह-पूर्ण शब्दों में कहा है कि बीज तथा अंकुर के पारस्परिक सम्बन्ध को न बता सकने के कारण कारण - कार्य का प्रश्न हमें मान्य नहीं हो सकता ।
पूर्वापरापरिज्ञानं अजातेः परिदीपकम ।
जायमानाद्धि वै धर्मात् कथं पूर्व न गृह्यते ॥२१॥ __ 'कारण' तथा 'कार्य' की पूर्वता तथा अपरता न दिखा सकने के कारण विकास अथवा सृष्टि का अभाव सिद्ध होता है । यदि कार्य (आत्माभिमानी तत्त्व) की उत्पत्ति वस्तुतः कारण से होती है तो फिर हम कारण की पूर्वता को निश्चित् रूप से सिद्ध क्यों नहीं कर सकते ?
हम तर्क-बुद्धि रखते हुए अजातवाद के सिद्धान्त को स्वीकार क्यों नहीं करते ? द्वैतवादियों द्वारा कारण और कार्य में पूर्वता तथा अपरता न सिद्ध की जा सकने के कारण हमें स्पष्टतः पता चल जाता है कि किसी कारण' के
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