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। २३६ ) वाले कार्य को कारण से सर्वथा भिन्न नहीं मानते क्योंकि यदि ऐसी बात होती तो इससे पूर्व बतायी गयी असम्भावनाएं सम्भावना बन कर रह जातीं । इस अवस्था में हम तेल को बिलोने पर मधु को प्राप्त कर लेते । इन सब विरोध भावों का समंजन करने के विचार से वे 'कारण' तथा 'कार्य' में 'समवाय' सम्बन्ध मानते हैं जिससे 'कार्य' सर्वदा एक नया रूप होता है यद्यपि उसका कारण से समवाय सम्बन्ध रहता है ।
इन तर्कों पर अधिक विचार करना आवश्यक नहीं जान पड़ता । हमारे काम के लिए तो इतना जान लेना ही पर्याप्त होगा कि इन दो मन्त्रों में श्री गौड़पाद ने इन परस्पर-विरोधी विषयों की ओर संकेत करके यह दिखाना चाहा है कि ये दोनों विचार-धाराएँ एक दूसरे का खण्डन करके वेदान्त की महत्ता एवं सर्वोपयोगिता को सिद्ध करती हैं।
इस मन्त्र की पहली पंक्ति में इस साँस्य-विचार को प्रकट किया गया है कि कारण से पहले से विद्यमान् वस्तु की उत्पत्ति होती है । दूसरी पंक्ति में न्याय-बैशेषिकों के इस विचार पर प्रकाश डाला गया है कि कार्य की उत्पत्ति असत् कारण से होती है ।
भूतं न जायते किंचिदभूतं नैव जायते । विववन्तो व्या ह्येवमजाति ख्यापयन्ति ये ॥४॥
जो मौजूद है उसका पुनः जन्म नहीं होता और जिसका अस्तित्व ही नहीं वह कभी प्रकट नहीं होता। इस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए वे अनजाने अद्वैतवाद का समर्थन और अजातवाद सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं ।
यहाँ टीकाकार प्रत्यक्षतः युक्तिपूर्ण प्रतीत होने वाले सिद्धान्तों की हँसी उड़ा रहे हैं क्योंकि तर्क-वितर्क करते रहने पर इन विचार-धारामों में पारस्परिक विरोध पाया जाता है।
श्री गौड़पाद कहते हैं कि जो पहले से ही विद्यमान है उसका किस प्रकार जन्म हो सकता है ? मैं यह नहीं कह सकता कि कल मेरे पिता जी का जन्म मा वा।
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