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( २४८ ) हेतोरादिः फलं तेषामादिहेतुः फलस्य च । हेतोः फलस्य चानादिः कथं तैरुपवर्ण्यते ॥१४॥
जो व्यक्ति कारण के कारण को कार्य और कार्य के कार्य को कारण मानते हैं वे कारण एवं कार्य को अनादि किस प्रकार मान सकते हैं ?
यहाँ मीमांसकों पर, जो वर्तमान संसार को पूर्व-कृत कर्मों का परिणाम तथा आने वाले संसार को इस समय किये जा रहे कर्मों के अनुरूप मानते हैं, प्राघात के लिए कुठार उठाया गया है।
यदि हम इस सिद्धान्त को वैयक्तिक दृष्टि से देखें तो हमारा वर्तमान जीवन हमारे किये गये कर्मों के अनुसार हुआ और प्रतिक्षण हम जो कुछ कर रहे हैं उससे हमारा आगामी जीवन निर्धारित हो रहा है । इस तरह मीसाँसक, जो यज्ञादि की शक्ति में दृढ़ विश्वास रखते हैं, वर्तमान संसार को पूर्व कृत्यों का परिणाम तथा आगामी जीवन को इस समय किये जा रहे कृत्यों का फल मानते हैं । इस दष्टि से कारण के कारण से कार्य तथा कार्य के कार्य से कारण की उत्पत्ति होती है । प्रस्तुत मंत्र में मीमांसकों के इस दृष्टिकोण की निराधारता को बताया गया है । आने वाले मंत्र में इसकी पालोचना की जायेगी।
हेतोरादिः फलं येषामादिहेतुः फलस्य च ।
तथा जन्म भवेत्तेषां पुत्राञ्जन्म पितुर्यथा ॥१५॥
जो व्यक्ति कारण के कारण से कार्य और कार्य के कार्य से कारण के सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं वे वस्तुत: विकास की व्याख्या करते हुए मानों पुत्र के द्वारा पिता के जन्म को सिद्ध करने का (विफल) प्रयत्न करते हैं ।
इस मंत्र में बड़े वेग उस कुठार द्वारा भारी चोट की गयी है जिसे पिछले मंत्र में मीमांसकों पर प्रहार करने के लिए उठाया गया था । यहाँ मीमांसकों की पूरे बल से हँसी उड़ायी जा रही है । ऋषि कहते हैं कि यदि
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