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( २४७ ) इस नश्वर संसार को उत्पन्न करने पर भी स्वयं अविनाशी रहता है । इस मंत्र में इस युक्ति की हँसी उड़ायी जा रही है और अपने भाष्य में श्री शंकराचार्य संसार का साधारण उदाहरण लेकर इसकी अवास्तविकता को सिद्ध करते हैं । वह कहते हैं कि यह बात तो इस प्रकार हुई कि हम एक मुर्गी के दो भाग कर के एक को भोजन के लिए रख देते हैं और दूसरे को अण्डे प्राप्त करने के लिए । यह एक असंभव बात है ।
अजादै जायते यस्य दृष्टान्तरतस्य नास्ति वै।
जाताच्च जायमानस्य न व्यवस्था प्रसज्यते ॥१३॥ हमारे जीवन में कोई एक ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिस से इस विचार की पुष्टि की जा सके कि अजात कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है । यदि यह बात मान ली जाए कि स्वतः-जात कारण से कार्य की उत्तत्ति होती है तो हमें 'अनावस्था दोष' का समाधान करना होगा। .
द्वैतवादी तर्क देते हुए यह कह सकते हैं कि अजात कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है । यह युत्रित सब प्रकार असंगत एवं अमान्य है । मेरे अजात पुत्र की ज्येष्ठ पुत्री क्या कभी दंत-पीड़ा से पीड़ित हो सकती है ? जब कारण स्वतः अजात है तो उससे कार्य का हाना किस प्रकार संभव होगा ? ऊपर दिये गये उदाहरण से पुत्री किस प्रकार होगी ? जब मैं स्वयं अाठ वर्ष का बालक हूँ तब मेरी पुत्री किस प्रकार रोगानुर हो सकती है ?
कारण-कार्य सम्बन्ध के क्रम में एक और बात कही जा सकती है । वह यह है कि कारण और कार्य दोनों ही जात हैं; जैसे मेरे पितामह से मेरे पिता तथा मेरे पिता से मेरा जन्म हुआ। इा उदाहरण के द्वारा हम मूलकारण तक नहीं पहुँच पाते ।
यदि हम यह मान लें कि सर्व-शक्तिमान् एवं सनातन-तत्त्व हो, जो अजात है, वास्तविक स्वरूप हो सकता है तो हम इस तथ्य को एक क्षण के लिए भी स्वीकार नहीं करेंगे कि परमात्मा से विविधता-पूर्ण संसार की उत्पत्ति हो सकती है।
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