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( २९७ ) भूतस्य जातिमिच्छन्ति वादिनः केचिदेव हि ।
प्रभूतस्यापरे धीरा विववन्तः परस्परम् ॥३॥ परस्पर वाद-विवाद करने वाले कई वादी यह कहते हैं कि पहले से बना रहने वाला तत्व विकसित होकर प्रकट होता है । किन्तु कई अन्य विद्वान यह दावा करने हैं कि अभूत-तत्त्व का ही विकास होता है ।
इस मौर आगे आने वाले मंत्र में हमें सांख्य-शास्त्र के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराया जाता है और साथ ही इनको मिथ्या सिद्ध किया जाता है। ये दोनों अद्वैतवाद से सम्बन्ध रखते हैं और यहाँ श्री गौड़पाद इनके पारस्परिक मतभेद को निरर्थकता पर बल दे रहे हैं । ऋषि ने अपने शिष्यों के सामने जो मार्ग रखा है वह निर्विवाद तथा निर्विरोध है।
इन दो विचार-धारामों के परस्पर-विरोधी भावों को समझन के लिए पाठकों को चाहिए कि वे इनके विचारों को जान लें । सांख्य दर्शन को मानने वाले 'सत्कार्य' सिद्धान्त अथवा 'परिणाम' सिद्धान्त में आस्था रखते हैं।
इस सिद्धान्त के अनुसार कहा जाता है कि निर्माण से पहले कारण में कार्य विद्यमान रहता है, जैसे मिट्टी में पात्र की सत्ता बनी रहती है। इस विचार-धारा के अनुसार किसी वस्तु का नये सिरे से निर्माण नहीं होता क्योंकि यदि कारण में कार्य की सत्ता न बनी रहे तो फिर वह किस प्रकार उस (कारण) में से प्रकट हो सकता है । इसलिए इस सिद्धान्त में विश्वास रखने वालों की दृष्टि में 'कारण' उस 'कार्य' को व्यक्त करता है जो उस (कारण) में पहले से सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता है। अतः कारणत्व का अर्थ कारण का कार्य (परिणाम) में बदलना है। मिट्टी में पात्र की प्राकृति तिरोहित भी जिससे यह सिद्ध हुआ कि 'कारण' के गुणों ने 'कार्य' के गुणों को छिपा रखा है । 'कारक ग्यवहार' द्वारा अव्यक्त पात्र को व्यक्त किया जाता है।
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