________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( २४२ ) साँसिद्धिकी स्वाभावकी सहजा प्रकृता च या। प्रकृति से ति विज्ञ या स्वभावं न जहाति या ॥६॥
प्रकृति या सहज भाव शाली वस्तुओं का यह अभिप्राय है कि प्राप्त होने पर वस्तुओं का वह गुण पूर्ण रूप से अंग बन जाता है जिसकी विशपता उनम पायी जाती है; इनमें यह सहज गुण पाया जाता है और यह कृत्रिम नहीं। कोई वस्तु अपने स्वभाव का त्याग नहीं करती।
किसो साहित्य में इससे पहले विज्ञानमय विचार-धारा इतनी परकाष्ठ तक नहीं पहुँचो जितनी वैदिक युग मे। यह बात धर्म-ग्रन्थों में विशेष रूप से पायी जाती है । प्राचीन आर्या विद्वानों ने सहज-स्वभाव की दृष्टि से एक वस्तु का चार स्पष्ट भागों में वर्गीकरण किया है । ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसकी विशेषता इन चारों में से किसी एक वर्ग में न पाती हो। .
(१) साँसिद्धिकी----भली भांति प्राप्त होने वाली । कई विशेषताएँ इस प्रकार की हैं जिन्हें अच्छी प्रकार प्राप्त करने पर मनुष्य छोड़ नहीं सकता, जसे यौगिक शक्तियाँ, शिक्षा, वर्णमाला इत्यादि । इसे मनुष्य द्वारा भली भांति प्राप्त किया स्वभाव व हते हैं । सोना शुद्ध होने पर अपने वास्तविक मूल्य को बनाये रखता है।
(२) दूसरे वर्ग में पाने वाली विशेषता को स्वाभाविकी' कहा जाता है जो किसी वस्तु का सहज स्वभाव है, जैसे अग्नि में प्रकाश तथा गर्मी । इसका यह अभिप्राय है कि अपना सहज-गण (गर्मी) धारण करने पर ही अग्नि की सत्ता बनी रह साती है।
(३) अकृता--- अकृत्रिमता, जैसे द्रव-पदार्थ का ढलान की अोर बहना । यह क्रिया किसी यंत्र अथवा दबाव के कारण नहीं होती । यह नक़ली बात नहीं बल्कि द्रव-पदार्थ का सहज स्वभाव है ।
(४) सहजा-प्राणी में स्वतः रहने और प्रकट होने वाली, जैसे बत्तख का पानी में तैरना, पक्षियों का उड़ना आदि ।
For Private and Personal Use Only