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अजातस्येव धर्मस्य जातिमिच्छन्ति वादिनः ।
प्रजातो ह्यमृतो धर्मो मत्यंतां कथमेष्यति ॥६॥ द्वैतवादी कहते हैं कि अजात एवं अविकारी सनातन-तत्त्व में विकार आ जाता है । जो तत्त्व स्वयं अविकारी तथा अविनाशी है, भला वह किस प्रकार मर्त्य हो सकता है ? ___इस मन्त्र की व्याख्या की जा चुकी है । देखिए तीसरे अध्याय में 'कारिका' का बीसवाँ मन्त्र ।
न भवत्यमृतं मयं न मत्यममृतं तथा ।
प्रकृतेरन्यथाभावो न कथंचिद्भविष्यति ॥७॥ अमर्त्य का मर्त्य होना और मर्त्य का अमर्त्य होना असंभव है क्योंकि किसी वस्तु का अपने स्वभाव को बदलना कभी संभव नहीं हो सकता।
स्वभावेनामृतो यस्य धर्मो गच्छति मर्त्यताम् । कृतकेनामृतस्तस्य कथं स्थास्यति निश्चलः ॥८॥ जो व्यक्ति यह मानता है कि स्वभाव से मृत्यु-रहित होने वाला तत्त्व मृत्यु (नाश) को प्राप्त करता है भला वह किस प्रकार इस बात को सिद्ध करेगा कि 'अमर्त्य' जन्म लेने के बाद अपने अपरिवर्तनीय स्वभाव को बनाये रखेगा।
पिछले अध्याय में कारिका के बीसवें और इक्कीसवें मंत्रों में इन मंत्रों का अर्थ समझाया जा चुका है। यहाँ तो इस विचार की पुष्टि करने के उद्देश्य से इनकी पुनरावृत्ति की गयी है ।
इन मंत्रों में जो विचार दिये गये हैं उन्हें पिछले अध्याय में पूरी तरह समझाया नहीं गया क्योंकि इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया कि कोई वस्तु अपने स्वभाव को किस प्रकार और क्योंकर नहीं बदलती । इस बात को नीचे समझाया जाता है ।
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