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इस मन्त्र म टीकाकार न इन चार विशेषताओं की ओर संकेत किया है; किन्तु शास्त्र की दृष्टि में चार के स्थान में पाँच गुण बताये गये हैं । श्री गौड़पाद ने पांचवीं विशेषता को बताने के लिए कदाचित् 'च' का प्रयोग किया है । इसे 'स्वरूप प्रकृति' कहते हैं; जैसे वस्त्र में वस्त्रत्व, पात्र में पात्रपन आदि । वस्त्रत्व को अलग कर देने से वस्त्र का अस्तित्व नहीं रहता । धागे के एक बण्डल अथवा रूई के ढेर को वस्त्र नहीं जिस में कपड़ापन पाया जाय ।
कहा जाता । वस्त्र वह है
जब तक इन वस्तुनों का अस्तित्व रहता है तब तक इन ( वस्तुनों) से इनकी प्रकृति को कभी अलग नहीं किया जा सकता है । कोई वस्तु अपने सहज स्वभाव के बिना नहीं रह सकती । 'शीत अग्नि' और 'अन्धकारपूर्ण सूर्य' का होना असम्भव है ।
इस बात को समझाने का यह उद्देश्य है कि कोई पदार्थ अपनी प्रकृति से पृथक नहीं रह सकता । इस उक्ति द्वारा छठे और सातवें मंत्र का समर्थन किया गया है जहाँ हमें यह बताया जा चुका है कि अमर्त्य का मर्त्य और मर्त्य का अमर्त्य होना असंभव है क्योंकि कोई अपने स्वभाव का त्याग नहीं कर सकता । मर्त्य अपने स्वभाव में स्थिर रहते हुए अमर्त्य नहीं हो सकता । यदि परम तत्त्व विकार आने पर विविधता का स्वरूप ग्रहण कर ले तो उसमें 'सनातन' रहने की विशेषता नहीं रह सकती । ऐसी बात कहना अर्थ का नर्थ करना होगा ।
अन्य धर्मों के विपरीत वेदान्त ही संसार का एक ऐसा धर्म है जो किसी भी बात को अन्धाधुन्ध मानने को तैयार नहीं । वेदान्त में अन्ध-विश्वास के लिए कोई स्थान नहीं है ।
जरामरणनिर्मुक्ताः सर्वे धर्माः स्वभावतः । जर मरणमिच्छन्तश्च्यवन्ते
सभी धर्म (जीव ) स्वभाव से जरा एवं मरण से रहित होते
हैं । उन्हें केवल यह धारणा होती है कि वे बुढ़ापे और मृत्यु को
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प्राप्त होते हैं । इस प्रकार वे इस विचार के कारण ही अपने स्वभाव
तन्मनीषया ॥ १० ॥
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