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प्रारम्भ किया गया है । यहाँ ऋषि अपने गुरु के चरणों में श्रद्धांजलि भेंट कर रहे हैं जो मनुष्यों के शिरोमणि हैं और जिन्होंने. प्रात्मा तथा परमात्मा में शाश्वत एकता का अनुभव किया। 'द्विपदां वरम्' के विषय में बहुत मतभेद पाया जाता है । कुछ व्यक्ति इसे बुद्ध महान् की स्तुति मानते हैं क्योंकि उन्होंने प्रात्मानुभव किया था किन्तु प्राचीन धारा वाले इसे वह वन्दना मानते हैं जिसके द्वारा श्री गौड़पाद ने अपने इष्ट-देवता, 'बद्रीनाथ' के भगवान् नारायण का स्तवन किया । कतिपय किंवदन्तियों के अनुसार श्री गौड़पाद ने बहुत वर्षों तक बद्रीनाथ की घाटी में रह कर वेदान्त के तत्वों पर मनन किया था
और वहाँ ही उन्हें भगवान नारायण द्वारा इन रहस्यों का उद्घाटन हुआ था।
इस कारिका में वे मन्त्र दिये गये हैं जिनमें ऋषि ने अपने अनुभव से प्राप्त किये गये दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । इस तरह श्री शंकराचार्य की श्रेणी के प्राचीन वेदान्तिक टोकाकारों ने इसे भगवान् बद्रीनाथ की स्तुति माना है । संस्कृत साहित्य में यह प्रथा बहुधा चली आती है कि एक नये ग्रन्थ का श्री गणेश करते समय भगवान की स्तुति की जाय जिससे इसके पूर्ण होने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो और वह ग्रन्थ सफलता पूर्वक समाप्त हो जाय । कई आलोचक इस प्रार्थना-मंत्र के कारण इस अध्याय को एक असम्बद्ध कृति मानते हैं । इस प्रस्तुत अध्याय की भूमिका में हम इस विचार को स्वीकार न करने के पक्ष में पहले ही युक्तियां दे चुके हैं।
इस मन्त्र में यह तथ्य पर्याप्त रूप से सिद्ध किया गया है कि प्रात्मतत्त्व तथा सर्व व्यापक परमात्म-तत्त्व में कोई भेद नहीं है। इन दोनों की प्राकाश से तुलना की गयी है। यह बात गत अध्यायों में सविस्तार समझायी जा चुकी है।
अस्पर्शयोगो वै नाम सर्वसत्वसुखो हितः । विवादोऽविरुद्धश्च देशितस्तं नमाम्यहम् ॥२॥
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